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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
राजादि सब लोगों का सूरिजी के श्रात्मज्ञान विशुद्धचरित्र, निस्पृह और जनकल्याणकारी वचनों पर पहिले से ही श्रद्धा विश्वास हो आया था। फिर सूरिजी ने स्वतः धर्म सुनने को फरमा दिया फिर तो था ही का? उन लोगों ने शिर झुका कर कह दिया कि प्रभो ! आप कृपा कर हम लोगों को जरूर धर्म के स्वरूप सुनावें । इस पर आचार्यश्री ने उन धर्म जिज्ञासुओं पर दया भाव लाकर उच्च स्वर और मधुर भाषा से धर्म देशना देना प्रारम्भ किया, हे राजेन्द्र ! इस अपार संसार के अन्दर जीव को परिभ्रमण करते हुये अनंतकाल हो गया कारण कि सूक्ष्मबादर निगोद में अनंतकाल, पृथ्वी पाणि ते वायु में असंख्याताकाल, और वनस्पति में अनंतानंत काल परिभ्रमण किया । बाद कुछ पुन्य बढ़ जाने से बेन्द्रिय एवं तेन्द्रिय चारिंद्रय व तीर्थंच पांचेन्द्रिय व नरक और अनार्य मनुष्य व अकाम निर्जरादि देवयोनि में परिभ्रमण किया पर उत्तम सामग्री के अभाव से शुद्ध धर्म न मिला, हे राजन् । शास्त्रकारों ने फरमाया है कि सुकृतों का सुफल और दुष्कृत्यों का दुष्फल भवान्तर में अवश्य मिलता है। इस कारण शुभाशुभ कर्म करता हुआ जीव चतुर्गति में परिभ्रमन करता है जिसको अनंतानंतकाल व्यतीत हो गया। जिसमें अव्वल तो जीव को मनुष्यभव ही मिलना मुश्किल है | कदाच मनुष्य भव मिल भी गया तो आर्य्यक्षेत्र, उत्तमकुल, शरीरआरोग्य, इन्द्रियपरिपूर्णता और दीर्घायुष्य क्रमशः मिलना दुर्लभ है, कारण पूर्वोक्त साधनों के अभाव में धर्म्म कार्य्य बन नहीं सकता है। अगर किसी पुण्य के प्रभाव से पूर्वोक्त सामग्री मिल भी जावे परन्तु सद्गुरु का समागम मिलना तो अति कठिन है और सद्गुरु बिना सज्ञान की प्राप्ति होना सर्वथा असंभव है ।
हे नरेश ! आप जानते हो कि बिना गुरु के ज्ञान हो नहीं सकता है और संसार में जितना अज्ञान फैलाया है वह स्वार्थी कुगुरुश्रों ने ही फैलाया है । श्राप स्वयं सोच सकते हो कि क्या जीवहिंसा से भी कभी धर्म हो सकता है ? पर पाखण्डियों ने तो केवल मांस की लोलुपता के कारण मांस खाने में, मदिरा र पीने में और व्यभिचार सेवन करने में भी धर्म बतला दिया है, इतना ही क्यों ? जिस ऋतुवंती एवं शूद्रनियों का अच्छे मनुष्य स्पर्श तक भी नहीं करते वे उनके साथ गमन करने में भी तीर्थों की यात्रा जितना पुन्य बतलाते हैं । अरे उन्होंने तो अपनी बहिन बेटी से भी परहेज नहीं रक्खा है । अतः एक जन्म के देने वाली माता के अलावा संसार भर की स्त्रियों के साथ मैथुन कर्म की छूट दे दी है। भला थोड़ासा विवेक
१ या क्रियते कर्म, तादृशं भुज्यते फलम् । यादृशं मुच्यते बीजं तादृशं प्राप्यते फलम् ।। सुचिनकम्मा सुचिना पल्ला दुच्चिना कम्मा दुचिना फल्ला भवति ।
* चवारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो । माणुसत्तं मुझसद्धा संजमंमिय वीरियं । सभावनाण संसारे, नाणा गोत्तासु जाइसु । कम्मानारणा विहाकड पुढो विस्सं भयापया ॥ एगया देव लोसु, नरएस विएगया। एगया आसुरं कार्य, अहा कम्मेहिंगच्छइ । एगया खतिओ होई, तओ चंडाल बुक्कुसो । तओ कीड़पयंगोय तओ कुंथु पिपीलिया || माणुस्सं विग्ग लघु, सुइ धम्मस्स दुल्लहा । जं सोचा पंडिवज' ति, तवं खंति महिंसयं । आहच्च सवणं लड्डु, सद्धा परम दुल्लहा । सुच्चाने या उयं मग्गं, बहवेपरिभस्सइ ॥ खेतं वत्थु हिरणंच पसवोदास पोरुसं । चत्तारि काम खंधाणि तत्थसे उववज्जई ।। मित्तवं नायचं होई, उच्चगोएय वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसो बले ।।
" श्री उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३”
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