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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
के साथ प्रार्थना की कि हे प्रभो ! आपका तो हम लोगों पर महान उपकार है; पर हम कृतघ्नी लोग उसको भूल कर आपका कुछ भी स्वागत नहीं कर सके । अतः उस अपराध को तो क्षमा करें और यह हमारा राज्य को स्वीकार कर हम लोगों को कुछ कृतार्थ बनावें इत्यादि ।
___सूरीश्वरजी ने लाभालाभ का कारण जान कर एवं ध्यान से निर्वृति पाकर आये हुये उन राजादि को कहा कि हे राजन् ! आप भले मेरा उपकार समझे; पर मैंने अपने कर्तव्य के अलावा कुछ भी अधिकता नहीं की है । क्योंकि हम लोगों ने स्वात्मा के साथ जनता के कल्याण के लिये ही योग धारण किया है। दूसरे आप जो रत्नादि द्रव्य और राज का आमंत्रण करते हैं वह ठीक नहीं क्योंकि अभी आपको यह ज्ञान नहीं है कि यह पदार्थ आत्म कल्याण में साधक हैं या बाधक ? यदि हमको इन पुद्र्गालक पदार्थों का ही मोह होता तो हम स्वयं पुरअन्तेवर एवं राजभंडार का त्याग कर साधु नहीं बनते । अतः इस धन दौलत एवं राज से हम निस्पृही योगियों को किसी प्रकार से प्रयोजन नहीं है इत्यादि ।
राजा मन्त्री और नागरिक लोग सूरिजी महाराज के निस्पृहता के शब्द सुन कर मंत्र मुग्ध एवं एकदम चकित हो गये और मन ही मन में विचार करने लगे कि अहो ! आश्चर्य कि कहां तो अपने लोभानन्दी गुरु कि जिस द्रव्य के लिये अनेक प्रयत्न एवं प्रपंच कर जनता को त्रास देकर द्रव्य एकत्र करते हैं तब कहां इन महात्मा की निर्लोभता कि बिना किसी कोशिश के आये हुए अमूल्य द्रव्य को ठुकरा रहे हैं । वास्तव में सच्चे साधुओं का तो यही लक्षण है हमें तो अपनी जिन्दगी में ऐसे निस्पृही साधुओं के पहिले ही पहल दर्शन हुये हैं । फिर भी दुख इस बात का है कि ऐसे परम योगीश्वर अपने नगर में कई असें से विराजमान होने पर भी हम हतभाग्यों ने और तो क्या पर दर्शन मात्र भी नहीं किया। इनके खान पान का क्या हाल होता होगा ? इस वर्षा ऋतु में बिना मकान यह कैसे काल निर्गमन करते होंगे इत्यादि, विचार करते हुए राजा ने पुनः प्रार्थना की कि हे दयानिधि ! यदि इस द्रव्य एवं राज को श्राप स्वीकार नहीं करते हैं तो हमें ऐसा रास्ता बतलाइये कि हम आपके उपकार का कुछ तो बदला दे सकें ? क्योंकि हम लोग आपके आचार व्यवहार से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं।
सूरिजी ने कहा राजेन्द्र ! हम लोग अपने लिये कुछ भी नहीं चाहते हैं हम केवल जनकल्याणार्थ भ्रमण करते हैं। हमारा कार्य यह है कि उन्मार्ग से भवान्तर में दुःखी बनते जीवों को सन्मार्ग पर लाकर सुखी बनाना । यदि आप लोगों की इच्छा हो तो धर्म का स्वरूप सुन कर जैन धर्म को स्वीकार कर लो ताकि इस लोक और परलोक में आपका कल्याण हो ।
श्रेष्टिना गुरुणां अग्रे अनेक मणिमुक्ताफलसुवर्णवस्त्रादि आनीय भगवान गृह्यताँ ? गुरुणां। कथितं मम न कार्य परं भवद्भि जैन धर्मो गृह्यताँ ।
"उकेरा गच्छ पट्टावली" ततस्तुराजसचिव सूरये सूर्य वर्चसे । अर्पयामास समक्त्या बहुरत्न च हाटकम् ॥
'उपकेश गच्छ चरित्र' १ततोऽवरत् स सचिवं, श्रुत्वावै धर्मरूपकम् । गृह्यताम् जैन धर्मश्च, कल्याणं लभ्यताँ त्वया ॥ अर्पितं तद्धनं तेन, नाङ्गीकृतमलोभिना । पूज्यन्ते मुनयश्चैव, त्यक्त सर्व परिग्रहा ॥
'उपकेश गच्छ चरित्र'
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