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________________ आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन [ वि० पू० ४०० वर्ष बुद्धि से सोचो कि ऐसा धर्म नरक में ले जाने वाला है या स्वर्ग में ? अर्थात इस प्रकार के दुराचार सेवन से सिवाय नरक के और स्थान ही कहां है। यह बात समझाई किसको जाय १ इन पाखण्डियों ने तो भद्रिक जनता के शुरू से ही ऐसे बुरे संस्कार डाल दिये हैं और साथ में यह भी प्रतिबन्ध लगा दिया है कि हमारे सिवाय किसी का उपदेश तक भी नहीं सुनना और जनता उन धर्मनाशकों के वचन पर विश्वास कर लेती है। ऐसे प्रज्ञाहिनों के लिये मनुष्य तो क्या पर ब्रह्माजी भी क्या कर सकते हैं ? अतः मनुष्य मात्र का कर्तव्य है कि सब से पहिले प्रात्मकल्याणार्थ धर्म की परीक्षार करनी जरूरी है जैसे सोने की परीक्षा चार प्रकार से होती है कमोटी, सूलाक, ताप और पीटन। इसी प्रकार धर्म की परीक्षा भी शील, सत्य, दया, दान और तप से होती है, वही धर्म पवित्र कहा जा सकता है कि जिसमें पूरे चारों गुण हों । और आत्म-कल्याण भी उसी धर्माराधन से हो सकता है। ___ महानुभावो! केवल तिलका और मुद्रा धारण करने से तथा मन्त्रोच्चारणमात्र से ही जीवों का कल्याण नहीं होता है । यदि जिसका हृदय आत्म-ज्ञान शून्य है तो वे चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो पर अपना जन्म ज्यर्थ ही गंवा देते हैं अतः केवल बाह्य आडम्बर पर ही धोखा न खा जाना चाहिये। इतना ही क्यों पर सम्यग्ज्ञान रहित पाखण्डियों की सहायता करना एवं पोषण करना भी नरक का कारण होता है; क्योंकि पाखण्डी संसार में पाखण्ड फैलाते हैं वे सब सहायकों की सहायता से ही फैलाते हैं, अतः उनको भी उसका फल तो लगना ही चाहिये और इस कारण वे नरक के द्वार देखते हैं। हे राजेश्वर ! अब इन पाखण्डियों के यज्ञ का भी थोड़ा सा हाल सुन लीजिये कि इन निर्दय दैत्यों ने संसार में मांस का प्रचार करने के लिये जनता को किस तरह से धोखा दिया है । पहिले तो मैं शुद्ध यज्ञ का स्वरूप बतला देता हूँ कि जैसे सत्यरूपी स्तूप, तपरूपी अग्नि, कर्मरूपी समिधा अहिंसा रूपी आहुति से आत्मा के साथ अनादि काल से लगे हुये कर्मो को होम कर उसका नाश करना इत्यादि । इस यज्ञ से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष का अधिकारी बनता है और इस विषय का यह एक ही उदाहरण नहीं है पर पूर्व महर्षियों ने अपनी अन्तरध्वनि अनेक३ प्रकार से उद्घोषित की है। १ यस्य नास्ति स्वयंप्रज्ञा, शास्त्र तस्य करोति किं। लोचनाभ्यां विहीनस्य, दर्पणं किं करीष्यति॥ २ यथा चतुर्मि कनकं परीक्षते, निघणच्छेदन तापताड़नैः । तथैव धम्मैः विदुषा परीक्षते, श्रुतेन शीलेन तपो दया गुणैः ॥ + तिलकैमुद्रयामंत्र, क्षामतादर्शनेन च । अन्त शून्या वहिसारा वंचयन्ति द्विज जनम् ॥ * यतिने काँचनं दत्वा, ताम्बूलं ब्रह्मचारिणे । चौरेभ्योऽप्यमय दत्वा, स दाता नरकं व्रजेत् ॥ ३ सत्य यूपं तपोमग्नि, कर्मणा समाधीमम् । अहिंसामाहुतिदद्या, देवं यज्ञ सताँमतः ॥१॥ इन्द्रियाणि पशुन् कृत्वा, वेदी कृत्वा तपो मयीं। अहिंसा माहुति कृत्वा, आत्म यज्ञ यजाम्यहम् ॥२॥ ध्यानाग्रौ जीव कुण्डस्थ, दममारूत दीयिते । असत्कर्म समितक्षेपे, अग्निहोत्रं कुरूतमम् ॥३॥ ४ न शोणित कृतं वस्त्रं, शोणिते नैव शुद्धते । शोणिता यद्वस्त्रं, शुद्धं भवति वारिणा ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ७७ www.jainellorary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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