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वि० पू० ४०० वर्ष]
[ भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा का इतिहास
हे पृथेश ! आप जानते हो कि खून से लिप्त हुश्रा वस्त्र खून से कभी साफ हो सकता है ? नहीं कदापि नहीं । इसी प्रकार र कर्म करने वाले जीव ऐसी निर्दय प्रवृति करते हैं जिसके जरिये उनको अवश्य नरक में जाना पड़ता है क्योंकि मांस भक्षण करने वाले को एक ही नहीं पर १८ दोष लगते हैं, इतना ही क्यों, पर यज्ञ का नाम लेकर निरपराध प्राणियों का वध करता है वह घोर नरकर में जाता है और जिस पशु को मारता है उसके जितने बाल हैं उतने हजार वर्ष उसको नरक में दुख भोगना पड़ता है।
हे क्षत्रधीरा ! जब बड़े से बड़ा अपराधी जीव मुंह में तृण लेकर खड़ा हो जाता है तो वह अबध्य समझा जाता है तो सदैव तृण भक्षण करने वाले निरपराध जीवों के प्राण लूट लेना कौन बहादुरी की बात है। यदि किसी धर्म वाले इस प्रकार प्राणियों की हिंसा का उपदेश क ते हों तो वह नास्तिक से भी नास्तिक हैं। इतना ही क्यों पर ऐसे नास्तिकों पर विश्वास रखने वाले भी घोर नरक में जाकर असंख्यकाल तक घोर दुःखों को भोगते हैं और भी देखिये महर्षियों ने क्या फरमाया है:
हे पृथ्वीपति ! जो लोग यज्ञ का नाम लेकर निराधार मूक प्राणियों के प्राण हरन करते हैं वे सीधे ही घोर नरक में जावेंगे । और अपने साथियों को भी वे नरक में साथ ले जाते हैं क्योंकि हिंसा से न तो कभी हुआ है और न कभी धर्म होने वाला ही है ।
"जल पर पत्थर कभी नहीं तरता है, सूर्य पश्चिम में नहीं उगता है, अग्नि कभी शीतलता नहीं देती है, पृथ्वी कभी पाताल में नहीं जाती है इत्यादि पर उपरोक्त कार्य दैवयोग से कभी अपने असली भावों को छोड़ा हुआ भी दिखाई देने लग जाय तथापि हिंसा से धर्म तो कभी भी नहीं होता है।
हे नरेन्द्र ! कितनेक निर्दय दैत्य भद्रिक लोगों को उल्टे समझाते हैं कि ब्रह्मा५ ने यज्ञ के लिए ही पशु आदि जीवों को पैदा किया है अतः यज्ञ में जिन २ प्राणियों की बलि दी जाती है वह सीधे ही स्वर्ग में पहुँच जाते हैं इत्यादि । पर उन निर्दय दैत्यों से कहाजाय कि यदि यज्ञ में बलिदान होने वाले जीव स्वर्ग में पहुँच जाते हैं तो क्या आप स्वयं एवं अपने माता पिता पुत्र आदि को स्वर्ग नहीं चाहते हो ? पहिले उनको बलि देकर स्वर्ग: पहुँचा दीजिये क्योंकि मूक प्राणी आपसे कभी यह याचना नहीं करते हैं कि हमको आप स्वर्ग
१ यस्तु मात्स्यानि, मांसानि भक्षयित्वा प्रपद्यते। अष्टादशापराधं च, कल्पयामि वसुन्धरा॥१॥ २ देवापहार व्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा । घ्नन्ति जन्तून गतघृणा, घोरं ते यान्ति दुर्गतिम ॥१॥ ३ अन्धे तमसि मज्जामड, पशुभिर्यजामहे । हिंसा नाम भवेद् धर्मो, न भूतो न भविष्यति ॥ + यदि ग्रावा तोये तरति तरणियद्युदयते, प्रतिच्यान्सप्तार्चियदि, भजति शैल्य कथमपि ।
यदिक्ष्मापीडं स्यादुपरि, सकलस्यपिजगतः । प्रसूतेसत्वानी तदपिन बधः कापिसुकृतम् ॥ ४ वैरिणोऽपि विमुच्यन्ते, प्राणान्ते तृणभक्षणात् । तृणाहराः सदैवैते, हन्यते पशवः कथम् ॥१॥ ५ यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः, स्वयमेव स्वयम्भुवा। यज्ञस्य भूत्यै सर्वस्य, तस्मात् यज्ञेवधोऽवधः॥ ओषध्यः पशवोवृक्षास्तियं चः पक्षिणास्तथा । यज्ञार्थ निधानंप्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युत्सृतीः पुनः ॥
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