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________________ आचार्य रनप्रभसरि का जीवन ] [वि० पू० ४०० वर्ष पहुँचावें । वे तो विचारे दीन स्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हम स्वर्ग को नहीं चाहते हैं हम तो जंगल के जल घास पर ही सन्तुष्ट हैं। अरे पाखण्डियो ! यदि जीव हिंसा करके ही स्वर्ग चला जायगा तो नर्क के द्वार तो बन्दर ही हो जायंगे । यदि कोई मांसभक्षी यह कहते हों कि हम यज्ञ में बलि देकर दुनिया की शान्ति३ करते हैं और इस से कुल वृद्धि भी होती है तथा दशहरे आदि में भैंसे बकरे मारना हमारी कुल परम्परा हैं तो यह उनकी भूल है क्योंकि न तो हिंसा से कभी शान्ति हुई है और न कुल वृद्धि ही होती है, वरन् हिंसा से तो उल्टी अशान्ति और कुल का नाश ही होता है । ___ राजन् ! आप स्वयं सोच सकते हो कि इस प्रकार हिंसा से धर्म की इच्छा रखने वाला अज्ञानी आरमा मानो जाज्वल्यमान अग्नि से कमल की, अंधकार मयी रात्रि में सूर्य की, सर्प के मुंह से अमृत की, वितंडावाद में साधुवाद की अजीर्ण से निरोगता की, कालकूट जहर से जीने की आशा रखता है अर्थात् उपरोक्त आशायें जैसे निरर्थक हैं वैसे हिंसा से धर्म की आशा रखना व्यर्थ है । हे नरेन्द्र ! जो मनुष्य संसार में रहता है वह भी झूठ बोलने में महापाप समझता हैं जब एक धर्म के उपदेशक झूठा उपदेश दें तथा मिथ्याप्रन्थों की रचना कर बिचारे भद्रिक जीवों को तथा उनकी वंश परम्परा के लिये नरक के द्वार खुल्ला रख देंवे तो पहले नरक में जाकर उन भक्तों के लिये उन्हें ही नरक में स्थान करना होगा इसमें शंका की कोई बात नहीं है अर्थात् जो हिंसामय शास्त्रों की रचना करता है वह तो बिना किसी रुकावट के सीधा नरक में ही जाता है । हे धराधिप ! संसार में जितने प्राचीन धर्म हैं उन सब का एक ही सिद्धान्त है कि 'अहिंसापरमोधर्म:' क्योंकि धर्म की माता अहिंसा है। बिना अहिंसा न तो धर्म का जन्म होता है और न धर्म की वृद्धि ही १ निहतस्य पशोर्यज्ञे, स्वर्गप्राप्तिवदीयते । स्वपिता यजमानेन, किन्तु तस्मानहन्यते ॥ + नाहं स्वर्ग फलोपभोग तृषितो नाभ्यर्थितस्त्वमया। संतुष्टस्तृण भक्षणेन,सततं साधो न युक्तं तवं॥ स्वर्गे यान्ति यादित्वया विनिहता यज्ञेध्रुवं प्राणिनो ।यज्ञं किं न करोषि मातृपितृभिः पुत्रैस्तथावान्धवैः ॥ २ यूपंच्छित्वापशूनहत्वा, कृत्वा-रुधिर कर्दमम् । यद्यवे गम्यते स्वर्गे, नरके केन गम्यते ॥ ३ हिंसाविघ्नाय जायते, विघ्न शान्त्यै कृतापिहि । कुलाचार धियाऽप्येषा, कृता कुल विनाशिनी ॥ ४ स कमल वनमग्रेर्वासरं भास्वदस्ता, दमृत मुरगक्त्रात् साधुवाद विवादात् ॥ रूगपम मम जीर्णाज् जीवितं कालकूटा, दभिलपतिवधान यः प्राणिनाँ धर्ममिच्छेत् ॥ १-ये चक्रःकर कर्माणः शास्त्रहिंसोपदेशकमक्ते, यास्यतिनरके नास्तिकेभ्योऽपिनास्तिकाः २-विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः, पात्यते नरकावनौ । अहो नृशंसैर्लोभान्ध, हिंसाशास्त्रोपदेश कैः ॥ सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविउन मरिज्ज। तम्हा पाणावह घोरं, निग्गंथा वज्जयंते णं ॥ कपिलानां सहस्राणि, यो विप्रभ्यः प्रयच्छति। एकस्य जीवितं दद्याद्, न च तुल्यं युधिष्ठिर ! ॥ न तो भूयस्तपो धर्मः कश्चिदन्योऽस्ति भूतले । प्राणिना भयभीतानामभयंयत्पदीयते ।। womenwwwwwwwwwwwwwwwwmarwmwwwrammmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwwwww ७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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