________________
वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
होती है अतः आप निश्चय समझ लें कि धर्म का लक्षण ही अहिंसा है; इतना ही क्यों पर सर्व धर्मों में पांचव्रत २ मूल माने हैं उसमें भी अहिंसा को सबसे पहिला स्थान दिया गया ३ है।
महर्षियों ने तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई दानेश्वरी कांचन का मेरु और वसुंधरा दान देता है और दूसरा एक मरते हुये जीव को प्राणों का दान देता है तो प्राणदान के सामने कांचन का मेरु और पृथ्वी कुछ भी गिनती में नहीं है।
हे राजन् !एक तरफ तो सब वेदों ५ का अध्ययन, सर्व यज्ञ तथा सर्व तीर्थों की यात्रा और दूसरी ओर एक प्राणी के प्राणों को बचाना, इन दोनों में एक प्राणी के प्राणों को बचाना ही श्रेष्ठ रहेगा, कारण जितने धर्म कृत्य हैं; उनमें जीव दया ही प्रधान है और दया सहित धर्मकृत्य है वही आत्मकल्याण में साधक बन सकता है। जैसे अपने प्राण अपने को वल्लभ हैं वैसे ही सब जीवों को अपने २ प्राण वल्लभ हैं; अतः किसी जीव को तकलीफ पहुँचानी यह मनुष्यधर्म के बाहर की बात है इसमें भी जो मनुष्यों में राजा कहलाता है उसका तो खास फर्ज ही है कि वे नीति के नाते सभी चराचर प्राणियों को अपने प्राणों के तुल्य समझे ।
हे नरेन्द्र ! संसार में सब धर्मों में दान धर्म को ही श्रेष्ठ माना है जिसमें भी अभयदान को तो यहाँ तक उत्तम माना है कि उसको वराबरी न गौदान १ कर सकता है न पृथ्वीदान कर सकता है और न अन्नदान ही कर सकता है।
हे राजन् ! अहिंसा सब जीवों का हित करने वाली मातारे के समान है । अहिंसा ही मरुप्रदेश जैसे निर्जल स्थान में अमृत की नालिका ३ समान है अहिंसा ही दुःखरूपी दावानल के शान्त करने में महामेघ की धारा समान है इत्यादि ।
हे नरेन्द्र ! आप किसी भी धर्म के साहित्य को उठा कर देखिये वह अहिंसा से ओत प्रोत ही मिलेगा , हाँ कोई लोग उनको काम में लेता हो या न लेता हो यह बात दूसरी है; पर पूर्व महर्षियों का तो यह अटल सिद्धान्त है कि बिना अहिंसा न तो धर्म होता है और न जीवों का कल्याण ही होता है, अतः आप अपना कल्याण करना चाहते हो तो आपको परमेश्वरी अहिंसा का उपासक बन जाना चाहिये । १-अहिंसा लक्षणो धर्मो ह्यधर्मः प्राणिनाँ वधः । तस्माद् धर्मार्थिभिलॊकैः कर्त्तव्या प्राणिनाँ दया॥१॥ २-अहिंसा सर्व जीवेषु, तत्वज्ञैः परिभाषितम् । इदंहि मूल धर्मस्य, शेषस्तस्यैवविस्तरम् ॥२॥ ३-पंचैतानि पवित्राणि, सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं, त्यागो मैथुन वर्जनम् ॥३॥ ४-यो दद्यात् कांचनं मेरुः , कृत्स्ना चैव वसुन्धरा । एकस्य जीवितं दद्यात्, न च तुल्य युधिष्ठिर ॥४॥ ५-सर्वे वेदा न तत् कुयु, सर्वे यज्ञाश्च भारत । सर्वेतीर्थाभिषेकाच, यत् कुर्यात् प्राणिनी दया ॥५॥ ६-दीयते म्रिय माणस्य, कोटिर्जीवित एव या, धनकोटिं परित्यज्य, जीवो जीवितु मिच्छति ॥६॥
१-न गोप्रदानं न महि प्रदानं, नाऽन्नप्रदानं हि तथा प्रदानम् । ___ यथा वदन्तीहबुधा प्रदानं, सवे प्रदानेष्वभयप्रदानम् ॥ २-मातेव सर्व भूतानामहिंसाहितकारिणि । अहिंसैव हि संसारमरवमृतसारिणिः ॥ ३-अहिंसा दुःख दवाग्नि प्रवृषेणधनाऽऽवलि, भव भ्रमिरुजाता महिंसा परमौषधी ॥
wrememmmmmmmmmmmmmmmmmmm
. Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org