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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
हे सज्जनो! मैंने आपको हिंसा और अहिंसा की समालोचना करके बतलाई है। इसमें मेरा कुछ भी स्वार्थ नहीं हैं क्योंकि साधु का जीवन तो सदा परोपकार के लिये ही होता है। अगर किसी जीव को उन्मार्गजाता हुआ देखें तो हमारा धर्म है कि हम उनको सन्मार्ग बतलावें, फिर मानना न मानना उनकी मरजी की बात है।
सूरिजी के सारगर्भित व्याख्यान का जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा कि वे मन ही मन में हिंसा से घृणा करने लग गये तथा अहिंसा की ओर उनकी श्रद्धा झुकने लग गई । जैनशास्त्रों के अनुसार इधर तो उन लोगों के कर्मों की स्थिति परिपक्क होने से उपादान कारण सुधरा हुआ था, उधर आचार्यश्री का निमित्त कारण मिल गया फिर तो कहना ही क्या था ? __ आचार्यश्री ने अपने सन्मुख बैठे हुये मठपतियों एवं ब्राह्मणों से कहा कि क्यों, भट्टजी महाराज! आपके हृदय में भी अहिंसा भगवती का कुछ संचार हुआ है या नहीं ? कारण मैंने प्रायः आपके महर्षियों के वाक्य ही आपके सन्मुख रखे हैं । हे भूर्षियो ! आपके ऊपर जनता ठीक विश्वास रखती है और आप अपने स्वरूप स्वार्थ के लिये विश्वास रखने वालों को अधोगति के पात्र बना रहे हो यह एक विश्वासघात और कृतघ्नीपना की बात है। इससे आप खुद डूबते हो और आपके विश्वास पर रहने वालों को भी गहरी खाई में डुबाते हो । अगर आप अपना कल्याण चाहते हो तो वीतराग-ईश्वर सर्वज्ञ प्रणीत शुद्ध पवित्र अहिंसामय धर्म को स्वीकार करो ताकि पूर्व किये हुये दुष्कर्मों से छुट कर और भविष्य के लिये आप की सद्गति हो अतः यह हमारी हार्दिक भावना है।
इस पर ब्राह्मणों ने कहा कि आपके सर्वज्ञ पुरुषों ने कौनसा धर्म बतलाया है कि जिससे भाप हमारा भला कर सको ? तथा आपके धर्म का क्या तत्त्व है ? इसको भी सुना दीजिये ।।
सूरीश्वरजी महाराज ने कहा कि हे महानुभावो ! धर्म का मूल-तत्व सम्यक्त्व (श्रद्धा ) है ! वह समकित दो प्रकार का है (१) निश्चयसम्यक्त्व (२) व्यवहारसम्यक्त्व । जिसमें यहाँ पर मैं व्यवहार सम्यक्त्व के लिये ही संक्षिप्त से कहूँगा । जैसे:
देव-अरिहन्त-वीतराग१ ईश्वर सर्वज्ञ सकलदोषवर्जित कैवल्यज्ञान, केवल्यदर्शन अर्थात् सर्व चराचर पदार्थोंको हस्तामलक की तरह जाने देखें और जिनका आत्मज्ञान तत्वज्ञान बड़े ही उच्चकोटि का हो और सर्व जीवों के कल्याण के लिये जिनका सुप्रयत्न हो सर्वजीवों के प्रति जिनकी समदृष्टि हो; "अहिंसा परमोधर्मः" जिनका खास सिद्वान्त हो; क्रीडा-कुतूहल और अष्टादश दोषवर्जिति पुनः पुनः अवतार धारण करने से सर्वथा मुक्त हो उन्हें देव समझना चाहिये । ४-तुष्यन्ति भोजनैर्विप्रा,मयूर घन गर्जितैः। साधवापरकल्याणे, खल परविपत्तिभिः देवत्व श्रीजिनेष्ववा, मुमुक्षपुगुरुत्वधी । धर्मधीरार्हताधर्मः, तत्स्यात् सम्यक्त्व दर्शनम् ॥
१ न राग रोषादिक दोष लेशो, यत्रास्ति बुद्धः सकल प्रकाशः ।
शुद्ध स्वरूपः परमेश्वरऽसौ, सतां मतो देव पदाभिधेयः ।। तस्मात् स देवः खलुवीतरागः पियऽप्रिय वा नहितस्य कश्चित् । रागादिसत्ताऽऽवरणानिनाम, तद्वाँश्च सर्वज्ञ तयाकुतः स्यात् १ ॥
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