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वि० पू० ४०० वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
गुरु - अहिंसा, सत्य, चौर्य, ब्रह्मचर्य और निस्पृहता एवं पंचमहाव्रत पांच समिति, तीनगुप्ति, दश प्रकार का यतिधर्म, सतरह प्रकार संयम, बारह प्रकार तप, इत्यादि शम दम गुणयुक्त भव्य प्राणियों के कल्याण के लिये जिन्होंने अपना जीवन ही अर्पण कर दिया हो उनको गुरु समझना चाहिये ।
धर्म-‘अहिंसापरमोधर्मः' अहिंसाही धर्म का मुख्य लक्षण है। इसके साथ क्षमा, तप, दान, ब्रह्मचर्य, देवगुरुसंघ की पूजा, स्वधर्मियों की सेवा, उपासना, भक्ति, आदि करना जिस धर्म से किसी प्राणियों को तकलीफ न पहुँचे और भविष्य में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति हो उसको धर्म समझना । जैनधर्म की लिये यह श्रद्धा के मूल तीन तत्व हैं । इनके अलावा आत्म कल्याण के लिये श्रद्धा के साधन दो प्रकार के बतलाये हैं १ – आचार ज्ञान, २ - तात्विकज्ञान, जिसमें आचार में अहिंसा; जिसकी प्रत्येक धर्म कार्य में मुख्यता है । हिंसा धर्म पालन करने वालों को सबसे पहिले तो जुत्रा, मांस, मदिरा, वैश्या, चोरी, शिकार, और परस्त्रीगमन एवम् सात कुव्यसनों का त्याग करना होता है । आगे चल कर व्रतधारी श्रावक होता है वह एक व्रत से लेकर बारह व्रत स्वीकार कर उसका पालन करता है । व्रत निम्न लिखित हैं:
( १ ) पहिलावत - हिलते चलते त्रस जीवों को बिना अपराध मारने की बुद्धि से मारने का त्याग करना। अगर कोई अपराध करे व मारने को आवे, अथवा आज्ञा भंग करे इत्यादि उन व्यक्तियों के सामना करना गृहस्थों के लिये प्रतभंग नहीं है । ( २ ) दूसरात - ऐसा झूठ न बोलना चाहिये कि वह राज कानून से खिलाफ हो अर्थात् राजदंड ले और लोगों में भंडाचार हो । अपनी कीर्ति व प्रतिष्ठा में हानि पहुँचे। इसी प्रकार झूठीगवाही देना, विश्वासघात व धोखेवाजी राजद्रोह देशद्रोह मित्रद्रोह इत्यादि न करना इत्यादि असत्य कार्यों की मना है ।
( ३ ) तीसरात - बिना दी हुई वस्तु नहीं लेना अर्थात् चोरी करने का त्याग है । जिस चोरी से राजदंड ले - लोगों में भंडाचार अर्थात् व्रतधारी की कीर्ति व विश्वास में शंका हो । परभव में उन क्रूर कर्म का बदला देना पड़े। ऐसे काय्यों की सख्त मना है ।
( ४ ) चौथेत्रत में - स्वदारासंतोष अर्थात् संस्कारपूर्वक शादी की हुई हो उनके सिवाय परस्त्री, वेश्यादि से गमन करना मना है ।
(५) पांचवांत में - धन माल द्विपद चतुष्पद राज स्टेट जमीन वगैरह स्वेच्छा से परिमाण किया हो उनसे अधिक ममत्व बढ़ाना मना है ।
(६) छठात्र में - पूर्वादि छः दिशाओं में जाने की मर्यादा करने पर अधिक जाना मना है ।
(७) सातवांत - - उपभोग परिभोग की मर्यादा है जैसें खाने पीने के पदार्थ एक ही वक्त काम में आते हैं उसे उपभोग कहते हैं और वस्त्र भूषण स्त्री मकानादि पदार्थ बारम्बार काम में आते हैं उसे परिभोग कहते हैं। इनका परिमाण कर लेने के बाद अधिक नहीं भोग सकते हैं । और मांस, मदिरा, मधु, मक्खन, अनंतकाय, पकाया हुआ वासी अन्नादि रसचलितभोजन, द्विदलादि कि जिसमें प्रचुरता से जीवोत्पत्ति होती हैं वह सर्वथा त्याज्य है। दूसरा व्यापारापेक्षा जो १५ कर्मादान अर्थात् अधिकाधिक कर्मबन्ध के कारण हों जैसे (१) श्रम का आरंभ कर कोलसादि का व्यापार करना (२) वन कटा कर व्यापार (३) शकटादि बनाकर किराये से फिराना ( ४ ) किराये की नियत से मकानात बन्धाना व गाड़ी ऊँट वगैरह भाड़े देना या फिराना (५) पत्थर की खाने निकलवाना (६) दान्त (७) लाख ( ८ ) रसतैल घृत मधु वगैरह ( ९ ) विष सोमलादि का व्यापार (१०) केशवाले जान
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