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'आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[वि० पू० ४०० वर्ष
वरों का व्यापार तथा ऊन जट का व्यापार, ( ११ ) यंत्र पीलन आदि ( १२ ) पुरुष को नपुंसक बनाना (१३) अग्नि वगैरह लगवाना (१४) तलाव के जल को शोषन करवाना ( १५ ) असतिजन का पोषन इस प्रकार १५ कर्मादान यानि अपनी आजीविका के निमित्त ऐसे तुच्छ कार्य करना व्रतधारी श्रावकों के लिये शक्त मना है । यह १५ कर्म व्यापार के लिये मना किये हैं ।
(८) अनर्थ दंडवत - निरर्थक श्रात ध्यान करना, अपना स्वार्थ न होने पर भी पापकारी उपदेश देना । दूसरों की उन्नति देख ईर्षा करना - आवश्यकता से अधिक हिंसाकारी उपकरण एकत्र करना । प्रमाद के वश हो घृत तेल दूध दही छाछ पाणी के बरतन खुले रख देना इनको नर्था दण्ड कहते है अतः पूर्वोक्त चारों बातों का व्रतधारी श्रावक को त्याग करना पड़ता है ।
( ९ ) नौवात्रतमें - हमेशा समताभाव रह कर सामायिक कर ने का नियम रखना पड़ता है। (१०) दशवांत में - दिशादि में रहे हुये द्रव्यादि पदार्थों के लिये १४ नियम याद करना
(११) ग्वारहवाँत - में तिथि पर्व के दिन अथवा अन्य दिवस जब कभी अवकाश मिले श्रवश्य करने योग्य पौषधत्रत जो ज्ञानध्यान से आत्मा को पुष्ट बनाने रूप पौषधत्रत करना ।
(१२) बारहवांत में - अतिथि संविभाग - महात्माओं को सुपात्र दान देना ।
इनके अलावा श्रावकों को हमेशा परमात्मा की पूजा करना, नये २ तीर्थों की यात्रा करना, स्वधर्मी भाइयों के साथ वात्सल्यता और प्रभावना करना, जीवदया के लिये बने वहां तक अमारि पढह फिराना, जैनमदिर जैनमूर्ति ज्ञान, साधु, साध्वियां, श्रावक, श्रावकाओं एवं सात क्षेत्र में समर्थ होने पर द्रव्य को खर्चना और जिनशासनोन्नति में तन मन और धन लगाना गृहस्थों का आचार है इत्यादि यह गृहस्थधर्म सम्राट् से लेकर साधारण इन्सान भी धारण कर सुखपूर्वक पालते हुए आत्म-कल्याण कर सकते है ।
जो गृहस्थी संसार से विरक्त होकर साधु बनना चाहता है उनके लिये पांच महाव्रत है जीवहिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांचों अत्रतों को मन वचन काया से करना, करावंन और अनुमोदन इस प्रकार सर्वथा त्याग करने से पंच महाव्रत का अधिकारी बनता है उसको साधु एवं सन्यासी भी कह सकते हैं । चा, चाय, अमायी न्यायी और वेपरवायी ये पाँच साधु के खास लक्षण होते हैं । कनककामिनी के सदैव त्यागी होते हैं और स्व-पर कल्याण के लिए वे हमेशा प्रयत्न किया करते हैं यह तो व्रत धारियों का आचार तत्त्व है ।
थोड़ा सा तात्विक विषय को भी समझा देते हैं। जैनधर्म की नींव कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है जीव शुभ या अशुभ जैसे जैसे कर्म करता हैं भव भवान्तर में वैसे२ ही फल भोगता हैं, वे कर्म आठ प्रकार के हैं । १ - पहिला ज्ञानावर्णिय कर्म — जिसके उदय से जीव का ज्ञानगुण श्राच्छादित हो जाता है, जैसे घी के बैल की आँखों पर पाटे बाँध देने पर उसको कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है और वह घाणी के चारों ओर फिरता ही रहता है। ऐसे ही जीव ज्ञानावर्गीय कर्मोदय से संसार में परिभ्रमन करता है ।
२ - दूसरा दर्शनावर्णिय कर्म- जीव के दर्शन गुण को रोक देता है। जैसे राजा के पहिरेदार यदि कोई व्यक्ति राजा से मिलना चाहे पर पहिरेदार मिलने नहीं देता ।
३- तीसरा वेदनीकर्म – जीव के अब्याबाधगुण को रोक देता है जैसे - मधुलिप्त छुरी जो मधुर भी लगती है और तीक्षणता से जबान को भी काट डालती है। इसी प्रकार साता सात वेदनी कर्म है । ४ - चौथा मोहनीयकर्म - जो जीव के क्षायिक गुण को श्राच्छादित कर देता है । जैसे मदिरा पिश्रा हुआ मनुष्य को हिताहित का भान तक नहीं रहता है। वैसे ही मोहनीय कर्मोद्रय जीव को हिताहित का भान नहीं रहता है।
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