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________________ वि० पू० ४०० वर्ष] [भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास wwwwwwwwwwwwwwwwwramme ५-पाँचवा आयुष्य कर्म-जीव के अटल अवगाहना गुण को रोक देता है; जैसे कारागार में पड़ा हुमा कैदी । जितनी कैद हुई है उतनी कैद भोगने से ही छुटकारा होता है । वैसे ही आयुः कर्म समझ लेना। ६-छट्ठा नामकर्म-जीव के अमूर्तिगुण को रोक देता है जैसे चित्रकार शुभाशुभ दोनों प्रकार के चित्र बना सकता है । वैसे ही शुभ अशुभ दो प्रकार नाम कर्म होता है। ७-सातवां गौत्रकर्म-जीव के अगुरुलघु गुण को रोकदेता है जैसे कुम्भकार का घड़ा जिसमें उच्च पदार्थ तथा नीच पदार्थ भरे जाते हैं । वैसे ही नीच ऊँच गौत्र कर्म है । ८-आठवां अन्तरायकर्म-जीव के वीर्य गुण को आच्छादित कर देता है जैसे राजा ने किसी को इनाम देने को कहा है पर खजानची बीच में अन्तराय डाल सकता है वैसे ही अन्तराय कर्म समझना इत्यादि । जैन सिद्धान्त में कर्मों के विषय को खूब विस्तार से कहा है. कर्मो की मूलप्रकृति, उत्तरप्रकृति, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, तथा कर्मबन्ध के कारण जैसे कि--मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योग एवं चार कारण हैं । इन कारणों से जीव के कर्मबन्ध होता है, उस बन्ध के भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, और प्रदेश एवं चार प्रकार हैं। जैसे २ अध्यवसाय से पाप कर्म करते हैं वैसे २ कर्मों की स्थिति और रसअनुभाग से कर्मबन्ध हो जाते हैं और उसकी मुद्दतपूर्ण होने पर वे कर्म उदय होते हैं तब उनको भोगना पड़ता है, अतः समझदार मनुष्यों का कर्तव्य है कि इन कर्मबन्ध के कारणों से सदैव बचता रहे तथा पूर्व संचित कर्म हैं उनको तोड़ने के कारण ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं वीर्य हैं इनकी आराधना कर कर्म को हटा दें तो वह जीव आत्मा से परमात्मा बन सकता है जिनको ईश्वर भी कहते हैं। २-हे धराधीश ! ईश्वर दो प्रकार से माने जाते हैं एक जीवनमुक्त दूसरे विदेहमुक्त । जीवनमुक्त का अर्थ यह है कि ऊपर जो आठ कर्म बतलाये हैं उनमें ज्ञानावर्णिय, दर्शनावर्णिय, मोहनीय और अन्तराय कर्म एवं चार घनघाती कर्म अर्थात आत्मघाती कर्म हैं। वे श्रात्मा के खास २ गुणों को आच्छादित कर देते हैं अतः इनके दूर करने से कैवल्यज्ञान कैवल्यदर्शन प्राप्त कर लेते हैं। जिससे वे एक समय मात्र में लौकालोक के सर्व भावों को हस्तामलक की तरह देख सकते हैं उनको जीवन मोक्ष कहते हैं तथा शेष रहे हुए वेदनी आयुष्य नाम और गौत्र एवं चार अघाती कर्मों का क्षय करने से इस नाशवान देह को छोड़ जीव मोक्ष में चला जाता है, वहाँ अक्षय सुखों में स्थित हो जाते हैं। हे राजन् ! ईश्वर सच्चिदानन्द, निरंजननिराकार, सकलउपाधिरहित, स्वगुणभुक्ता आत्मगुणों में रमणता में ही लीन रहते हैं और लोकालोक के द्रव्य गुण पर्याय को जानते देखते हैं। कई अनभिज्ञ लोग जो ईश्वरतत्त्व के सच्चे स्वरूप को नहीं जानते हैं वह कहते हैं कि ईश्वर जगत का कर्ता-हर्ता है, ईश्वर ने सृष्टि की रचना की है, ईश्वर जीवों को कर्मों के फल भुक्ताते हैं, ईश्वर पुनः पुनः अवतार धारण करते हैं इत्यादि । __ पर यह सब कहना बच्चों के खेल सदृश्य है क्योंकि ईश्वर न तो जगत का कर्ता हर्ता है न ईश्वर ने सृष्टि की रचना ही की है न ईश्वर जीवों को शुभाशुभ कमों का फल ही भुक्ताते हैं, और न वे पुनः अवतार ही लेते हैं । इसका कारण यह है कि पूर्वोक्त सब काम कमौंपाघी वाला जीव ही कर सकता है, परन्तु ईश्वर ने तो सकल कर्मों से मुक्त होकर निरंजन निराकार पद को प्राप्त कर लिया है तब वे सकर्मिक कार्य कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् ईश्वर पूर्वोक्त कार्यों से एक का भी कर्ता हर्ता नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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