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________________ आचार्य यक्षदेवसूरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५१५–५५७ उनको प्रत्येक घर से एक मुद्रिका और एक इंट दी जाती थी कि वह आने वाला सहज ही में लक्षाधिपति बन जाता था ऐसी कथा चन्द्रावती के ओसवाल जाति और पाली की पल्लीवाल जाति में भी प्रचलित है । __अग्रवालों के १७॥ गोत्रों की उत्पत्ति -पूर्व जमाने में देव देवी एवं यज्ञादि क्रिया काण्ड में जनता का दृढ़ विश्वास था और वे कोई भी छोटा बड़ा कार्य करना होता तो देवी देवता और यज्ञादि क्रिया कांड द्वारा ही किया करते थे। यद्यपि भगवान महावीर एवं आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से यह प्रथा बहुत कम हो गई थी तथापि सर्वथा नष्ट नहीं हुई थी कारण चिरकाल से पड़ी हुई कुप्रथा यकायक नष्ट होनी मुश्किल थी स्वार्थ प्रिय ब्राह्मण इसके प्रेरक थे जहाँ उन लोगों का थोड़ा बहुत चलता वहाँ वे यज्ञ होम करने में तत्पर रहते थे। राजा उग्रसेन के अठारह रानियां थी पर किसी के भी पुत्र नहीं था राजा ने ब्राह्मणों को एकत्र कर पुत्र होने का उपाय पूछा पर उन्होंके पास सिवाय पशुबद्ध रूपी यज्ञ के और क्या था उन्होंने कह दिया कि हे राजन् ! यदि आपको पुत्र की इच्छा है तो आप अठारह यज्ञ करवाइये आपके अठारह पुत्र अर्थात एक एक रानी के एक एक पुत्र हो जायगा । राजा ने अठारह यज्ञ करवाने का निश्चय किया । यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण एवं ऋषि लोग थे एवं यज्ञ करवाने वाले उनके तया उनकी सन्तान के गुरु भी समझे जाते थे और शुभ प्रसंग पर लाग लागन एवं दक्षिणा उन गुरुओं को दी जाती थी। यज्ञ में वेद मंत्रों के साथ पशुओं की बलि देना मुख्य काम था। अतः राजा उग्रसेन ने यज्ञ के लिये बहुत से ब्राह्मणों एवं ऋषियों को बुलवाये और यज्ञवलि के लिये बहुत से पशु एकत्र किये थे । यज्ञ प्रारम्भ हुआ और क्रमशः १७ यज्ञ समाप्त भी हो गये पर अठारहवें यज्ञ में राजा को यज्ञ में होने वाली पशुबलि रूप घोर हिंसा प्रति घृणा हो गई अर्थात राजा ने उन निरपराधी पशुओं पर दया लाकर छुड़वा दिये और अपने वंशजों के लिए यज्ञ में बलि देना एवं जीवों की हिंसा करना करवाना बिल्कुल निषेध कर दिया । राजा को इस प्रकार यज्ञ की हिंसा से घृणा आ जाने का क्या कारण होगा ? इसके लिये जैन कथाओं से पाया जाता है कि राजा को एक करूणा मूर्ति नामक जैनसाधु का उपदेश लग गया था । और उसने बुरी तरह तड़फड़ाहट करते हुए पशुओं को देखकर यज्ञ कर्म करना बंध करवा दिया था और यह बात असम्भव भी नहीं है क्योंकि चलते हुए यज्ञ के लिए यकायक इस प्रकार हिंसा से घृणा हो जाना और भविष्य में अपनी सन्तान परम्परा के लिए इस प्रकार की क्रूर हिंसा का निषेध कर देना किसी अहिंसा के उपासकों का उपदेश बिना बनना मुश्किल था । अतः यह कथन सर्वथा सत्य समझना चाहिए कि राजा उग्रसेन को जैनमुनि का उपदेश अवश्य लगा था। राजा के अठारह रानियां थी और उनके अठारह पुत्र हुये जिन्हों से अठारह गोत्रों की उत्पत्ति हुई । कई यह भी कहते हैं कि यज्ञ कराने वाले १८ ऋषि थे उनके नाम से अठारह गोत्र हुये और कई यह भी कहते हैं कि राजा के १७ पुत्रों के तो सत्तर ऋषि गुरु बन गये पर एक के कोई गुरु नहीं बना जिसका यज्ञ अधूरा रहा था अतः उसने अपने बड़े भाई के गुरु को ही गुरु माना। इसलिये उसका आधा गोत्र गिना गया जिससे १७॥ गोत्र कहा जाता है । उन १७|| गोत्रों का विवरण निम्न कोष्टक में दिया जाता है। विवाह के बाद उन्होंने काशी और हरिद्वार में कितने ही यज्ञ किये। इसके पश्चात् उन्होंने कोल्हापुर के महीधर राजा की कन्या को प्राप्त किया। इसके बाद दिल्ली के पास आकर उन्होंने आगरा बसाया और वहाँ पर उनने अपनी राजधानी स्थापित की अतः उस नगर के नाम से उन लोगो की जाति का नाम अग्रवाल हुआ है । इत्यादि अग्रवाल जाति की उत्पत्ति ] For Private & Personal use Only ५४९.org Jain Education International ___www.jainter oral
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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