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________________ वि० सं० २९८-३१० वर्ष [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहस ___ जब युगल मुनि सूरिजी के पास आये और सब हाल कह सुनाया तो सूरिजी बहुत प्रसन्न हुये । कारण, कमाऊ पून किसको प्यारे नहीं लगते हैं । जब वे युगल मुनियों के बनाये हुये नूतन जैन सरदार सूरि जी के पास आये और दोनों मुनियों की खूब तारीफ की कि पुज्यवर ! हम लोग अज्ञान के वस विचारे निरपराधी प्राणियों के प्राण हरण कर नरक जाने की तैयारियें कर रहे थे पर कल्याण हो आपका और आपके शिष्यों का कि हम लोगों को बचा लिया। उन क्षत्रियों ने कुछ रत्नादि सूरिजी के सामने भेट रख कर प्रार्थना की कि दयालु ! यह द्रव्य हम आप या दोनों मुनियों की सेवा में भेंट करना चाहते हैं । गर्ज कि इन दोनों मुनियों ने हम लोगों पर बहुत उपकार किया है अतः इसको आप स्वीकार कावें। आचार्यदेव ने सोचा कि यह लोग कितने भद्रिक हैं और इनके दिल में देव गुरु धर्म प्रति कितनी भक्ति है पर धर्म के स्वरूप को नहीं जानने से पाखण्डि लोग इनके द्रव्य को हरण कर अपनी इन्द्रियों का पोषण करते हैं । अतः सूरिजी महाराज ने फरमाया कि महानुभावों । हम निम्रन्थों को द्रव्य से कोई प्रयोजन नहीं है । यह द्रव्य तो साधुओं के लिये उलटा दूषणरूप है । यदि इस द्रव्य से कुछ लाभ होता तो हम अपने घर की लक्ष्मी पर लात मार कर योग क्यों लेते ? क्षत्रियों ने कहा पूज्य दयालु ! योग लिया तो क्या हुआ हरेक कार्य के लिए खर्च करने में द्रव्य की तो आवश्यकता रहती ही होगी ? सूरिजी-देवानुप्रिय ! हमारे किसी भी कार्य के लिए द्रव्य की आवश्वकता नहीं रहती। हम केवल मधुकरी भिक्षा से ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं हम हजारों कोसों तक देश विदेश में पैदल भ्रमण करते हैं अतः सवारी या किराए की भी हमें जरूरत नहीं। वस्त्र एवं भिक्षा की जिस समय जरूरत हो तव गृहस्थों के यहाँ से हम स्वयं जाकर थोड़ा २ ले पाते हैं कि जिससे गृहस्थ को न तो हमारे लिये रसोई बननी पड़े न उनको किसी प्रकार की तकली ही उठानी पड़े और हमारा गुजार भी होजाय । अब आप ही बतलाइए कि दूसरे हमारे क्या काय हैं कि जिसके लिए खर्च एवं द्रव्य की आवश्यकता रहे ? क्षत्रियों ने कहा ठीक गुरु महाराज नगर में तो प्रापका नर्बाह हो जाता होगा पर आप सैकड़ों साधु किसी छोटे प्रामडै में जा निकले वहाँ तो रसोई बनानी ही पड़ती है न ? फिर द्रव्य बिना कैसे काम चलता होगा ? सूरिजी-अब्बल तो हमारे साधु तपस्या करते हैं और तप करने में ये शूरवीर भी होते हैं । कई मास कई १५ दिन तथा छोटी बड़ी तपस्या किया करते हैं और जहाँ भिक्षा का योग नहीं बने वहाँ खुशी से तपोवृद्धि करते हैं और यह तो हम योग लिया इसके पहिले ही जानते थे कि हम योग आराम के लिये नहीं लेते हैं। पर खूब कष्ट सहन कर मोक्ष प्राप्त करने के लिये ही लेते हैं। दूसरे साधु होकर द्रव्य रखते हैं उनके पीछे सैकडों उपाधियाँ खड़ी होजाती हैं कि वे योग का साधन कर ही नहीं सकते हैं । गृहस्थ लोग इस द्रव्य को किसी शुभ कार्य में लगाते हैं तो उसके लिए भूषण है नहीं तो नरक ले जाने वाला ही समझना चाहिए इत्यादि सूरिजी ने खूब उपदेश दिया। क्षत्रीय सुनकर आश्चर्य में डूब गये। उन्होंने सोचा कि ऐसे निर्लोभी महात्मा तो हमने संसार भर में आज ही देखे हैं । उन्होंने पुनः प्रार्थना की कि हे करुणासिन्धो ! हम तो अपने मकान से इस द्रव्य को आपके भेंट करने को ही लाये थे। अब इसको हम अपने घर में तो रख ही नहीं सकते हैं । आप ही फरमाइये हम इस द्रव्य को क्या करें और हमारे पर महान उपकार करने वाले दोनों मुनियों को हम क्या भेट दें ? ७४४ [ राजकुंवर की उदारता और उपदेश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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