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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ६९८-७१०
के प्राण नष्ट करने में अपनी बहादुरी सारझते होंगे पर किसी भव में आप निर्बल और ये जीव सबल हो गये तो क्या यह अपना बदला नहीं लेंगे ? उस समय आपका क्या हाल होगा इसको तो थोड़ा सोचो और जिस धर्म को आप मानते हैं उस धर्म के धर्मशास्त्र क्या कहते हैं उनको तो जरा ध्यान लगा कर सुनलीजिये
यावन्ति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भोरत । तावद्वर्षसहस्त्राणि पच्यन्ते पशु घातकाः ! ॥ यावन्ति पशुरोमाणि तावत्कृत्वोऽत्र मारणम् । वृथा पशुनःप्राप्नोति प्रेत्य जन्मनि जन्मनि ।। शोणितं यावत पांशून संगृह्वाति महीतलात् । तावतोऽद्वानमुत्रान्यैः शोणितोत्पाद को ऽधते ।। ताडयित्वा तृणेनापि संरम्भान्मति पूर्वकम् । एकविंशतिमाजानीः पापयोनिषु जायते ।। तामितगन्धतामिसं महारैरवगैरवम् । नरकं कालसूत्रं च महानरकमेव च ।। धर्मो जीवदयातुल्यो न क्वापि जगतीतले । तस्मात्सर्व प्रयत्नेन कार्या जीवदया नृभिः ।। एकस्मिन रक्षिते जीवे त्रैलोक्यं रक्षितं भवेत् । घातिते घातितं तद्वत्तस्माज्जीवान मारयेत् ॥ न हिंसासदृशं पापं त्रैलोक्ये सचराचरे । हिंसको नरकं गच्छेत् स्वर्ग गच्छेदहिंसकः ।। सर्वे वेदा न तत्कुयुः सर्वे यज्ञाश्च भारत ! । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्माणिनां दया । आत्मा विष्णुः समस्तानां वासुदेवो जगत्पतिः । तस्मान्न वैष्णवै- कार्या परहिंसा विशेषतः ॥ स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः : अभयं येन भूतेभ्यो दतं सर्वसुखावहम् ॥
इत्यादि एक ओर तो क्षत्रियों के तलवार वाले हाथ ज्यों के त्यों खड़े थे और दूसरी ओर धर्मशास्त्रों का सुनना । वस, वीर क्षत्रियों की आत्मा ने पलटा खाया और उन्होंने कहा महात्माजी ! हम लोगों ने अज्ञान में भ्रमित हो कर बहुत जीवों को सताया, उनके प्राणों को नष्ट किया हैं पर आज आपके उपदेश को सुनकर हम लोगों को इतना तो ज्ञान हो ही गया है कि इतने दिन हम गलत रास्ते पर थे। और निरपराध जीवों की शिकार कर उनके प्राणों को नष्ट किया जिसका बदला हमको परलोक में अवश्य देना पड़ेगा। परन्तु आज से हम प्रतिज्ञा करते हैं कि अपने जीवन में हम किसी निरपराधी जीवों को मारना तो क्या पर तकलीफ तक भी नहीं देंगे और आपसे प्रार्थना करते हैं कि हमारे किये हुये पाप कर्म किसी प्रकार से छुट सकते हों तो आप ऐसा उपाय बतलायें कि जिससे हमारे पापों का क्षय हो जाय ।
___ मुनियों ने कहा वीरो ! आखिर तो क्षीत्रय, क्षत्रीय ही होते हैं । हमें बड़ी खुशी है कि आप थोड़े से उपदेश से ठीक रास्ते पर आगये हो । आपको अपने कृत कर्मों का क्षय ही करना है तो जिनेन्द्र भगवान के कथन किये धर्म को स्वीकार कर उसका छाराधन करो कि आपके किये कर्मों का नाश हो जायगा यह कह कर मुनियों ने अपनी विद्या से क्षत्रियों के हाथ खुल्ले कर दिये कि वे अपनी तलवारें म्यान में डालकर मुनियों से पूछने लगे को श्रापका धर्म तो स्वीकार करने को हम लोग तैयार हैं पर आपके धर्म के क्या नियम हैं ? और उसकी आराधना कैसे हो सकती है ? कृपा कर इस बात को हमें समझाये । मुनियों ने शुद्ध देव गुरु धर्म का स्वरूप बतलाया तत्पश्चात् गृहस्थधर्म के बारह व्रत और साधु धर्म के पांच महावत को इस प्रकार समझाया कि वे समकितमूल जितने व्रत सुविधा से पाल सके उतने व्रत धारण कर मुनियों का उपकार मानते हुए वन्दनकर अपने स्थान चले गये और मुनि भी अपने स्थान पर आये। राजकुँवारों को जैनधर्म की दीक्षा ]
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