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आचार्य कक्कर का जीवन |
[ ओसवाल संवत् ५५७-१७४
इधर तो शाह लाला आत्म कल्याण की धुन में निर्वृति का उपाय सोच रहा था कि त्रिभुवन की शादी कर आत्म कल्याण करूं उधर त्रिभुवनपाल ब्रह्मचर्य व्रत पालन की प्रतिज्ञा पर डटा हुआ था । हलाला और ललितादेवी आपस में बातें कर रहे थे कि त्रिभुवन की शादी जल्दी से करके अपने को आत्म कल्याण करने लग जाना चाहिये । त्रिभुवनपाल बीच में ही बोल उठा कि क्यों पिताजी ! आप तो अपना कल्याण करने को तैयार हुए हो और यह संसार रूपी वरमाला मेरे गले में डालना चाहते हो ? यदि आप मुझे अपना ध्यान पुत्र समझते हो तब तो आत्म कल्याण में मुझे भी शामिल रखिये कि मेरे पर आपका डबल उपकार हो जाय । मैं इस बात को सच्चे दिल से चाहता हूँ ।
शाह लाल ने कहा पुत्र ! अपने घर में इतना धन है तुम शादी कर इसको सत्कार्य में लगा कर पुन्योपार्जन करो | पिताजी ! जब आप इस धन को असार समझ कर अर्थात् इनका त्याग कर अपने कल्याण की भावना रखते हो तो यह द्रव्य मेरा कल्याण कैसे कर सकेगा ? हाँ, मैं इस द्रव्य में फंस जाऊँ तो इससे मेरा अकल्याण जरूर होगा । आप तो मुझे साथ लेकर सबका कल्याण कीजिये इत्यादि बाप बेटों का आपस में बहुत कुछ संवाद हुआ। जिसको सुन कर ललितादेवी तो बड़ी भारी उदास हो गई क्या मेरे घर का नाम निशान तक भी नहीं रहेगा ?
खिर इस बात का झगड़ा सूरिजी के पास आया और सूरिजी ने उन सबको इस क़दर समझाया कि वे सब के सब दीक्षा लेकर आत्मकल्याण करने के लिये तैयार गये । अपने घर में जो अपार द्रव्य था उसको सात क्षेत्र में लगा दिया जिसको देख कर तथा शाह की सहायता से कोरंटपुर तथा आस पास के कई ५२ नरनारी सूरिजी महाराज के चरण कमलों में दीक्षा लेने को तैयार हो गये । फिर महोत्सव का तो कहना ही क्या था । उस प्रदेश में बड़ी भारी चहल-पहल मच गई। शुभ दिन में सूरिजी ने उन मोक्षामिलाषियों को भगवती जैन दीक्षा देकर अपने शिष्य बना लिए । त्रिभुवनपान का नाम मुनि देवभद्र रख दिया । इस महान कार्य्य से जैनधर्म की खूब ही उन्नति हुई ।।
मुनि देवभद्र पर सूरिजी की पहिले से ही पूर्ण कृपा थी । ज्ञानाध्ययन के लिये तो वृहस्पति भी आपकी स्पर्द्धा नहीं कर सकता था। आपके वदन पर ब्रह्मचर्य का तप तेज अजब ही झलक रहा था । तर्कवितर्क और बाद विवाद में पकी युक्तियें इतनी प्रबल थीं कि वादी लोग आपका नाम सुनकर घबरा उठते थे एवं दूर-दूर भाग छूटते थे इत्यादि सूरिजी के शासन में आप एक योग्य साधु समझे जाते थे ।
एक समय आचार्य यक्षदेव सूरि लाट सौराष्ट्र और कच्छ में घूमते घूमते सिन्ध की ओर पधारे । आप श्री का शुभागमन सुन सिन्ध भूमि में आनन्द एवं उत्साह का समुद्र ही उमड़ पड़ा । जहाँ आप पधारते वहाँ एक यात्रा का धाम ही बन जाता था । कई साधु साध्वियों एवं भक्त लोग आपके दर्शनार्थ आया करते थे और भक्त लोग अपने २ नगर की ओर पधारने की प्रार्थना करते थे ।
सूरिजी अपने शिष्य मंडल के साथ शिवनगर पधारे वहाँ का राव गोंदा जैन धर्मोपालक ही नहीं पर जैन श्रमणों का परम भक्त था । उसने श्री संघ के साथ सूरिजी का सुन्दर स्वागत किया । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य और तात्त्विक विषय पर होता था । सूरिजी की वृद्धावस्था के कारण कभी कभी मुनि देवभद्र भी व्याख्यान दिया करता था । आपका व्याख्यान इतना प्रभावोत्पादक था कि सुनने वालों को वैराग्यये बिना नहीं रह सकता था । चतुर्मास का समय नजदीक आ गया था। श्री संघ ने
त्रिभुवनपाल की दीक्षा ]
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