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वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ।
[ भगवानपार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
पन्ना मुक्ताफलादि से ज्ञान पूजा की तथा प्रत्येक प्रश्न की सुवर्ण मुद्रिकाओं से पूजा को। केवल शाह भेरा ही नहीं पर श्री संघ भी ऐसा सुअवसर हाथों से कब जाने देने वाले । बहुत से लोग श्रीभगवतीजी सूत्र की पूजा भक्ति करते हुये वीतराग वाणी का श्रवण कर अपनी आत्मा का कल्याण करने लगे।
इधर धनदेव की देख रेख में मन्दिरजी का काम चल रहा था । और धनदेव वस्तु शास्त्र एवं शिल्पकला का अध्ययन कर बड़ी दिलचस्पी से अपनी जुम्मेदारी का कार्य सम्पादन कर रहा था जब शाह भैरा के दोनों कार्य इच्छानुसार हो रहे थे तो अब तीसरे कार्य के लिये सूरिजी के पास आकर प्रार्थना की कि प्रभो ! आपकी अनुग्रह से मेरे जीवन के ध्येय रूप दो कार्य तो हो रहे हैं पर तीसरे कार्य के लिये मुझे क्या करना चाहिये ? सूरिजी ने कहा भैरा तू बड़ा ही भाग्यशाली है । दो कार्य कर लिये तो तीसरे के लिये ऐसी कौन सी बड़ी बात है । पर पहले यह निश्चय करले कि तुमको संघ शत्रुजयादि दक्षिण के तीर्थों का निकालना है । या सम्मेतशिखरादि पूर्व के तीर्थों का ? भैरा ने सूरिजी के अभिप्राय को जानलिया और कहा पूज्यवर ! शत्रुजय तीर्थ नजदीक है और रास्ते में भी सर्व प्रकार की सुविधायें हैं अतः यह कार्य धनदेव के लिये रहने दूं और मैं सम्मेतशिखरजी का ही संघ निकालू ऐसी मेरी इच्छा है फिर आप हुक्म फरमावे वही शिरोधार्य करने को मैं तैयार हूँ। सूरिजी महाराज ने फरमाया कि ठीक है सम्मेतशिखरजी की यात्रा करने में कठिनाइयें अवश्य हैं द्रव्य भी अधिक व्यय करना होगा पर लाभ भी तो अधिक है। कारण साधारण लोगों के शत्रुजय की यात्रा की अपेक्षा शिखरजी की यात्रा बड़ी कठिनता से होती है अतः तुम तो सम्मेत शिखरजी की यात्रा का ही विचार रक्खो।
बस, फिर तो क्या देरी थी शाह भैरा ने श्री संघ को एकत्र कर आज्ञा मांगी और श्रीसंघ ने आदेश देते हुये कहा शाह भैरा ! तू भाग्यशाली है आदित्यनाग कुल में जन्म लिया ही प्रमाण है । भैरा ने कहा कि यह सब पूज्याचार्य देव और श्रीसंघ की कृपा का ही सुमधुर फल है और यह कार्य मैंने श्रीसंघ की मदद पर ही उठाया है । श्रीसंघ अपना कार्य समझ के इसको पूर्ण करावे । श्रीसंघ ने कहा कि इसमें कहने की जरूरत ही क्या है श्रीसंघ सब तरह की मदद के लिये तैयार है ।
यों तो शाह भैरा बड़ा भारी व्यापारी था विशाल कुटुम्ब का मालिक था गज काज में एवं हजारों के साथ सम्बन्ध रखने वाला था। बहुत से राजा और जागीरदारों को करज देने वाला बोहरा था। उसके हुक्म मात्र से ही सब काम होता था । फिर भी शाह भैरा ने इस संघ का काम के लिये सब कार्य अलग २ विभागों में बांट कर अलग २ कमेटियें बनाकर उनके सुपुर्द कर दिया। शाह भैरा सूरि जी महाराज की सेवा भक्ति करता हुआ श्रीभगवतीसूत्र सुन रहा था और सब काम सिलसिलेवार हो ही रहा था। सादी गर्मी के सब साधनों का संग्रह कर लिया था । प्रत्येक प्रान्त एवं ग्राम नगरों में आमंत्रण भेज दिये थे। मामला दूर का होने के कारण चतुर्मास उतरते ही मार्गशीर्ष शुकु पँचमी को आचार्य श्री की अध्यक्षता एवं शाह भैरा के संघपतित्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। पट्टावलीकार ने इस संघ का विस्तृत रूप में वर्णन किया है। पांच हजार साधु साध्वी और एक लक्ष नरनारियों तथा पांच हजार सिपाही राजाओं की
ओर से पहरायत के तौर पर साथ में थे। सोना चाँदी चन्दनादि के १८४ देरासर संघ के साथ में थे । इसले अनुमान लगाया जा सकता है कि उस जमाने में जैन समाज की धम एवं तीर्थों पर कितनी श्रद्धा थी। सम्मेत शिखर जी के संघ में छरी पाली यात्रा करके आने में कम से कम ६-छः मास जितना समय
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[ शाह भैरा के तीन कार्य
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