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________________ आचार्य देवगुप्तहरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ तो लग ही जाता था। उस जमाने के लाखों करोड़ों रुपयों के व्यापार करने वालों को कितना संतोष था कि छ सात और आठ आठ मास तक घर के सब काम छोड़ देना वह भी एक दो मनुष्य नहीं पर सब घर के लोग । कराण ऐसे पुन्य कार्य में पीछे कौन रहे। जिस नौकर गुमास्ता और पढ़ीसियों पर धनमाल और घर छोड़ जाते उन लोगों का कितना विश्वास था । इन सब बातों को देखते हुये यही कहना पड़ता है कि वह जमाना सत्य का था, संतोष का था नीति का था, विश्वास का था और धर्म का था उस जमाने के जीव कितने हलुकर्मी थे कि इतने बड़े लक्ष्मीपात्र होने पर भी अपना जीवन सदा और सरल रखते थे। जैनाचार्यो का थोड़ा सा उपदेश होने पर धर्म के लिये अपना सर्वस्व अर्पण करने को आगे पीछे का कुछ भी विचार नहीं करते थे । बस,इन पुन्य कार्यों से हो उनके पुन्य हमेशा बढ़ते रहते थे। श्रीसंघ आनंद मंगल के साथ रास्ते में नये २ मंदिरों के दर्शन तीर्थों की यात्रा जीर्णोद्धार अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजारोहण, पूजा प्रभावना, स्वामिवात्सल्य साधर्मियों की सहायता और दीन दुखियों का उद्धार करतासम्मेतशिखरजी पर पहुंचा तीर्थ के दर्शन स्पर्शन कर सब का दिल प्रसन्न हुआ। सब लोगों ने सेवा पूजा भक्ति आदि का यथाशक्ति लाभ लिया और वीस तीर्थङ्करों की निर्वाण भूमि की यात्रा एवं अष्टान्हिका महोत्सव ध्वजमहोत्सव वगैरह अनेकों शुभ कार्यों से लाभ उठाया । इस प्रकार पूर्व की सब यात्रायें की। तत्पश्चात वहाँ विहार करने वाले साधु पूर्व में रहे शेष तीर्थयात्रा करते हुये संघ के साथ पुनः नागपुर आये। आचार्य यक्षदेवसूरि ने वह चतुर्मास मेदनीपुर में किया बाद चतुर्मास के पुनः नागपुर पधारे । इतने में शाह भैग का प्रारम्भ किया जिनालय भी तैयार होगया। शाह भैरा ने सूरिजी से मन्दिर की प्रतिष्ठा के लिये प्रार्थना की पर सूरिजी ने कहा भैग ! तेरे तीन काम तो सफल होगये पर एक कार्य शेष रह गया है । शाह भैरा ने कहा पूज्यवर ! वह भी फरमा दीजिये कि बन सके तो साथ में ही कर लिया जाय । सूरिजी ने कहा भैरा ! ये तीन कार्य तो द्रव्य द्वारा करने के थे तुमने कर डाले पर चतुर्थ कार्य तो श्रात्मभाव का है और आत्मा से ही हो सकता है और इसमें द्रव्य की अपेक्षा आत्म त्याग वैराग्य की आवश्यकता है। भैरा ने कहा पूज्यवर ! मेरे से बन गया तो मैं अधूरा न रख चारों कार्य पूरा कर देगा । सूरिजी ने कहा कि चतुर्थ कार्य्य दीक्षा लेने का है शाह भैरा ने क्षणमात्र विचार करके कहा पूज्यदयालु ! इसमें कौनसी बड़ी बात है आपजैसे हजारों साधु साध्वियों ने दीक्षा ली है तो मैं इतने से काम के लिये अधूर क्यिों रक्खू । चलों दीक्षा लेने को भी मैं तैयार हूँ | सूरिजी ने कहा 'जहासुखम' शाह भैरा ने घर पर जाकर धनदेव और उसकी माता को कहा कि पूज्याचार्य देव दीक्षा के लिये कहते हैं और मैंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया है । सेठानी ने कहा क्या प्राचार्य महाराज के कहने से ही श्राप दीक्षा लेने को तैयार हुये हैं ? हाँ, प्राचार्य महाराज ने कहा कि तीन कार्य कर लिये तो अब एक काम शेष क्यों रखते हो ? तो फिर मैं एक काम को बाकी क्यों रक्खू , पूरा ही करलू सेठानी ने कहा आप दीक्षा लेते हो तो मैं घर में रह कर क्या करूँ ? चलो आपके साथ मैं भी तैयार हूँ । धनदेव ने कहा कि फिर मैं ही अकेला घर में रह कर क्या करूंगा ? मैं भी आपके साथ दीक्षा लूगा । सेठानी ने कहा बेटा ! हम दोनों को दीक्षा लेने दे और तू घर पर रह क्योंकि अभी घर सँभालनेवाला तेरे कोई पुत्र नहीं है। धनदेव ने कहा कि माता यदि तू घर में रहे तो मैं भी रहूँगा नहीं तो मैं घर में रह कर क्या करूं । अतः माता ने पुत्र के स्नेह भाव से घर में रहना मंजूर कर नागपुर से शिखरजी का संघ ] Jain Education Internal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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