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वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
लिया और शाह भैरा ने मंदिर की प्रतिष्ठा के साथ ही सूरिजी महाराज के पास दीक्षा ले ली जिसका महोरसव धनदेव ने बड़े ही समारोह से किया।
धनदेव का दिल तो संसार से विरक्त हो गया था पर केवल माता के स्नेह से उसने घर में रहना मंजूर किया था और माता का भाव अपने पतिदेव के साथ दीक्षा लेने का था परन्तु घर सँभालने वाला कोई पौत्र होजाय तो फिर दीक्षा लंगी इस आशा से मां बेटा दीक्षा का भाव होने पर भी भोगावली कर्म क्षय करने को संसार में रह गये ।
'श्रेयांसि बहु विघ्नानि' इस अटल सिद्धान्त को कौन मिटा सकता है । धनदेव के संसार में रहते हुये के क्रमशः चार पुत्र हुये पर इससे लक्ष्मी देवी रुष्ट होकर धनदेव से किनारा लेलिया। यहाँ तक कि धनदेव के पिता ने करोड़ों की सम्पत्ति छोड़कर दीक्षा ली थी आज धनदेव को शाम सुवह भोजन का पता नहीं है । जब मनुष्य के अशुभ कर्मोदय होता है तब शरीर पर के कपड़े भी खाने लग जाते हैं । धनदेव जैनधर्म के कर्म सिद्धान्त का जानकार अच्छा ज्ञानी था तथापि कभी २ अर्तध्यान इस प्रकार घेर लेता था जिससे वह मन ही मन में पश्चाताप करने लग जाता था कि धन्य है पिताजी को कि वे भी साहिवी में दीक्षा लेकर सुखी बन गये . मैं कैसा भाग्य हीन रहा कि उस सुवर्ण समय को व्यर्थ खोदिया।
__ यदि मैं भी । उस समय में ही दीक्षा लेलेता तो श्राज मुझे इन दुःखों का अनुभव क्यों करना पड़ता क्षणान्तर वह सोचता है कि मेरे पूर्व जन्म में अन्तराय कर्म बन्धा हुआ था । दीक्षा लेलेता तो इस कर्म को कैसे भोगता और कम बिना भोगे निर्जरा नहीं, कहा है कि ' कडाणकम्मण नवि तस्समोरवो' कभी यह भी विचार करता था कि खैर कुछ नहीं अब भी मैं दीक्षा लेलं , क्षणभर में सोचता है कि इस दरिद्रावस्था में दीक्षा लूंगा तो लोग कहेंगे कि धन नष्ट होगया और अब कमा के खाने की हिम्मत नहीं अतः विचारा दीक्षा लेकर मांग खायेगा इत्यादि इस प्रकार दरिद्रता के साम्रज्य में अनेक तरंगे उठने लगी । फिर भी उस निर्धनावस्था में भी धनदेव ने अपनी धर्म करनी को न्यून नहीं की पर पहिले से बढ़ाता ही गया। शानियों का यही तो मजा है कि उदय आये कर्मो को सम्यक् प्रकार से भोगते हैं और अनुदय की उदिरना कर उदय में लाता है कि उन कर्मों का करजा शीघ्र ही चुक जाता है। ___ एक समय आचार्य कक्कसूरिजी भ्रमण करते नागपुर पधारे। अन्योन्य लोगों के साथ धनदेव भी सूरिजी को बन्दन करने को आया और उनके साथियों ने परिचय करवाया कि गुरु महाराज । यह धनदेव शाह भैरा का पुत्र है । भैरा ने स्वर्गीय आचार्य यक्षदेवसूरि के उपदेश से महा प्रभविक श्री भगवतीजी सूत्र बंचाया सम्मेतशिखरजी का संघ निकाला, जिन मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई और सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा ली । धनदेव भी धर्मज्ञ एवं जैनसिद्धान्त का अच्छा जानकार है पर अन्तराय कर्मोदय इनकी आर्थिक स्थिति खराब होगई है । सूरिजी ने कहा महानुभाव । ज्ञानियों ने इप्सी लिये तो संसार को असार बतलाया है क्योंकि सुख के अन्त में दुःख और दुःख के अन्त में सुख हुआ ही करता है । क्या दुःख और क्या सुख ये सब पौद्गलिक वस्तु है । इससे क्या खुशी और क्या नाराजी जनधर्म का सिद्धान्त तो यह है कि पौद्गलिक सुख हो चाहे दुःख हो पर अपने ध्येय से बिचलित न होना चाहिये इत्यादि । धनदेव ने सूरिजी के मार्मिक शब्द सुने तो उसकी आत्मा में एक नवीन चेतनता प्रगट हुई । इधर तो धनदेव के अशुभकर्मो का क्षय हुत्रा और उधर से सूरिजी के शुभ वचन अतः लक्षमीदेवी घर पूछती २ धनदेव के घर में आपहुंची। यही ५७८
[धनदेव की आर्थिक परिस्थिति
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