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आचार्य देवगुप्तमूरि का जीवन
[ ओसवाल संवत् ५७४-५७७
कारण है कि इधर से तो धनदेव ने कारणवसात भूमि खोदी तो पुष्कल द्रव्य मिल गया उधर जिन्हों पर करजा लेना था वह घर पर आकर देने लगे उधर व्यापार में भी उनको खूब गहरा लाभ होने लगा। बस, एक मास में धनदेव का घर फिर लक्ष्मी देवी से शोभायमान होने लगा । धनदेव ने चार पुत्रों की शादी एक मास में करदी और आप जैसे सर्प कांचल छोड़कर भाग जाता है वैसे धनदेव संसार को सपैकंचुक समझ कर उससे भाग कर आचार्यकक्कसूरि के चरणों में आकर अपने १४ साथियों के साथ भगवती जनदीक्ष स्वीकार करली तब जा कर शान्ति का श्वास लिया। प्राचार्य श्री ने धनदेव को दीक्षा देकर आपका नाम सोमतिलक रखा आप की योग्यता देख मथुरा में आपको उपाध्याय पदसे विभूषित किया । आपसूरिजी के शासन को अच्छी तरह से चलाया करते थे। आचार्य श्री कक्कसूरि की सेवा में रहकर आपने धर्म के अच्छे २ कार्य सम्पादन किये । कई राजा महाराजाओं की सभा में वादियों से शास्त्रार्थ कर उनको परास्त कर जैनधर्म का झंडा फहराया था। इसी कारण आचार्य कक्कसूरिजी ने अपने अन्त समय चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष उपाध्याय सोमतिलक को अपने पट्ट पर आवार्य बनाकर आपका नाम देवगुप्तसूरि रख दिया था। ___ प्राचार्य देवगुप्तसूरि जन्शासन रुपी श्राकाश में सूर्य सदृश्य प्रकाश के करने वाले हुये थे श्रापको जैसे संसार में लक्ष्मीदेवी वरदाई थी। वैसे ही श्रमणावस्था मे सरस्वतीदेवी वरदाई थी । आप जैनागमों के अलावा व्याकरण न्याय तर्क छन्द अलङ्कारादि सर्व साहित्य के पारगामी थे। जैसे समुद्र भांति भांति के अमूल्य रत्नों से शोभायमान होता है वैसे हो आपका शासन अनेक विद्या एवं लब्धिपात्रों से सुशेभित था। पट्टावलीकारों ने कतिपय मुनियों का परिचय करवाते हुये लिखा है कि आचार्य श्री के शासन में ।
१-धर्ममूर्ति नामका वाचनाचार्य बड़ा ही लब्धिपात्र था एक समय सूरिजी की आज्ञा लेकर कई मुनियों के साथ उसने सिन्धभूमि में विहार किया। क्रमशः वह विहार करता वीरपुरनगर में पहुंचः । वहां पर एक सन्यासी आया हुआ था वह अपने योग वल से पृथ्वी से अधर रहकर जनता को चमत्कार बतलाकर सद्धर्म से पतित बना रहा था। ठीक उसी समय धर्ममूर्ति नाम का वाचानाचार्य वहां पधार गये। जैनसंघने आपका अच्छा स्वागत किया और वहां के सन्यासी का सब हाल कह सुनाया। इस पर धर्म मूर्ति ने कहा श्रावकों । इस चमत्कार से आत्मकल्याण नहीं है । ये तो योग विद्या है और जिसका अभ्यास किया हुआ होता है वह योग विद्या के बल से अधर रह सकता है। श्रावकों ने कहा कि महाराज भले ही इससे आत्मकल्याण नहीं होगा पर भद्रकजनता इससे विस्मित होकर उसकी अनुयायी बन जाती है । तब क्या अपने जैन में में ऐसी विद्या नहीं है मूर्तिजी ने कहा कि नास्ति नही है : श्रावकों ने कहा कि नास्ति ना है तो फिर वे विद्यायें किस काम की हैं कि धर्म का वंश होता हो तब भी काम में न ली जांय ? वाचनाचार्य ने कहा ठीक है । कल मैं पाट पर बैठ कर व्याख्यान दूंगा आप पाट को निकाल लेना बस, दूसरे दिन वाचनाचार्य का व्याख्यान आम मैदान में हुआ। हजारों मनुष्य व्याख्यान सुनने को एकत्र हुये थे थोड़ासा व्याख्यान हुआ कि श्रावकों ने पाटा को खीच लिया तो वाचनाचार्य अधर रहकर व्याख्यान बांबने लगे जिस को देखकर जनता पाश्चर्यमुग्ध बनगई। इस बात को सन्यासी जी ने सुनी तो उसने सोचा कि इस जैनसाधु के पास कितनी विद्या होगी। वे चलकर वाचनाचार्य के पास आये और बड़े ही शिष्टाचार से बातें करने लगे । आखिर उन्होंने कहा कि मुनिजी मेरे पास जो विद्या है वह एक जनाचार्य से ही मैंने प्राप्त की है, कृपा करके आपभी कुछ यादगारी बक्सावे वाचानाचार्य जी ने कहा महात्माजी आप उसी विद्या की खोज करो जिससे जन्म मरणके रिजी के शासन के मुनि रत्न ]
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