________________
वि० सं० १७४–१७७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
दुःख मिटजाय । सन्यासीजी ने कहा कि खैर, श्रापही कृपा कर बतलाइये कि ऐसी कौनसी विद्या है कि जिससे जन्म मरण मिट जाय ? वाचनाचार्य ने कहा कि वीतराग की वाणी एक ऐसी विद्या है कि जिसको जैनदीक्षा ग्रहण कर आराधना कीजिये । अतः जन्म मरण मिटाने के लिये दूसरी कोई विद्या नहीं है इत्यादि तर्क वितर्क से इस कदर समझाया कि सन्यासीजी ने वाचनाचार्यजी के पास जै दीक्षा स्वीकार करली जिससे केवल वीरपुर में ही नहीं पर सिन्धु मण्डल में जैनधर्म का खूब उद्योत हुआ।
२-आचार्य श्री के दूसरा शिष्य पं० राजसुन्दर था आप ज्योतिष विद्या में बड़े ही प्रवीण थे श्राप विहार करते हुये एक समय भरोंच नगर में गये। वहाँ पर एक ज्योतिषी विद्वानों की सभा हुई थी। सब लोगों को आमंत्रण दिया पर पं० राजसुन्दर को किसी ने आमन्त्रण नहीं दिया। कारण, उन लोगों का खयाल था कि जैनधर्म त्याग वैराग्य मय धर्म है । वे लोग सिवाय त्याग वैराग्य में कष्ट करने के और क्या जानते हैं ? खैर जिस समय सभा हुई तो बिना आमंत्रण पं० राजसुन्दर सभा में चला गया इस पर उन विद्वानों ने पं० राजसुन्दर का स्वागत कर श्रासन दिया पर वे जैनधर्म के नियमानुसार रजोहरण से भूमि परमार्जन कर कांबली डाल कर बैठ गये । सभा का कार्य शुरू हुआ तो किसी ने वर्ष फल किसी ने मामफल किसी ने राजविग्रह किसी ने वर्षा अगमन विषय कहा । जब पं० राजसुन्दर को पूछा तो उसने कहा कि आजरात्रि आठ घड़ी ४८ पल के बाद बरसात होगी। ज्योतिषियों ने सोचा ऐसा तो कोई योग नहीं दीखता है फिर यह जैनश्रमण किस आधार से कहता है। दूसरे विद्वानों की बातों की नोंध के साथ जैनमुनि के कथन की नोंध करली और यह बात जनता के कानों तक भी पहुँच गई । ठीक बतलाये हुये टाइम पर मुसलाधार बरसात होने लग गई । बस, जो विद्वान जैनश्रमणों की हँसी करते थे वही उनके चरणों में अपना शिर मुकाने लगे और कई लोग पं० राजसुन्दर के पास आकर ज्योतिष विषय का अभ्यास करने लगे । पण्डितजी को राजा प्रजा की और से अच्छा सन्मान मिला।
-श्राचार्य श्री के शासन में एक पद्मकलस नामक उपाध्याय था । वे परकाया प्रवेश विद्या में निपुण थे। अपनी विद्या का चमत्कार वतलाकर कई राजा महाराजाओं को जैनधर्म के परमोपासक बनाये ।
४ चतुर्थ पण्डित नागप्रभ था । श्राप आकाशगमिनी विद्या में पारगामी थे आप अष्टम अष्टम तप का पारणा किया करते थे और पारणा के दिन श्रीशत्रुजय तीर्थ और उपकेशपुर मंडन महावीर की यात्रा करके ही पारणा किया करते थे। एक समय पं० नागप्रभ अष्टम के पारणा के दिन अपनी आकाशगामिनी विद्या के बल से शत्रुजयतीर्थ का चैत्यवंदन करने को आकाश में जा रहे थे। रास्ते में कोई सन्यासी भी पैरों पर लेपकर आकाश में जा रहा था। दोनों की श्राकाश में भेंट हो गई तो आपस में बातें करते दोनों शत्रुजय पर आगये । सन्यासी ने देखा तो जैनश्रमण के पैरों पर लेप नहीं था। तब सन्यासी ने पूछा कि आपके पैरों पर लेप नहीं है फिर
आप आकाश में गमन कैसे करते हो। जैनश्रमण ने उत्तर दिया कि पैरों पर लेप करके आकाश में गमन करना यह पराधीनता है। लेप नहीं मिलने से गति रुक जाती है। कभी कोई लेप धो डालता है तो भी गति रुक जाती है । अतः मैं इस लेप की विद्या को विद्या नहीं समझता हूँ विद्या तो ऐसी होनी चाहिए कि जो श्रात्मा से प्राप्त हुई हो जिसकी गति को कोई रोक ही नहीं सके । सन्यासीजी सुन कर मंत्रमुग्ध बनगये और जैनश्रमण से प्रार्थना करने लगे कि महात्माजी ऐसी विद्या तो आप मुझे भी बतलाइये, मैं आपके उपकार को कभी नहीं भूलूगा। मुनिनागप्रभ ने कहा यदि आपको विद्या की आवश्यकता है, तो जैनदीक्षा स्वीकार
[ पं० नागमभ और आकाश गामनीविद्या
Jain Education International
For Private & Personal use only
www.jainelibrary.org