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आचार्य देवगुप्तमरि का जोवन ]
[ ओसवाल संवत् ५७४-५७७
करो और बाद में कहूँ वैसे तपस्या करो। आकाशगामिनी विद्या वो क्या पर आत्मा में अनंत विद्यायें एवं लब्धियें छिपी हुई हैं वे प्रगट हो सकती हैं। बस फिर तो देरी ही क्या थी। सन्यासीजी ने महाप्रभाविक तीर्थ श्रीशर्बुजय पर मुनि नागप्रभ के पास जैन दीक्षा स्वीकार करली और तप संयम की आराधना में लग गया ज्यों २ श्रापको जैनधर्म का तात्विक ज्ञान होता गया त्यों २ श्राशा और तृष्णा मिटती गई इस प्रकार नागप्रभ ने अनेक भव्यों का उद्धार किया।
५-६० न्यायमुनि नाम का एक विद्वान मुनि था । देवी का उसको बरदान था कि आप शास्त्रार्थ में सदैव विजयी रहोगे । आपने कई राजसभाओं में बौद्धों एवं वेदान्तियों के साथ शास्त्रार्थ कर जैनधर्म का विजय झंडा फहराया था। आपके विषय पट्टावली कार ने बहुत विस्तार से लिखा है । भरोंच, जावलीपुर, चन्द्रावती, उज्जैन, मथुरा, शिवनगर वगैरह बहुत स्थानों में वादियों के साथ शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी। इत्यादि सूरीश्वरजी के शासन में ऐसे अनेक विद्या सम्पन्न साधु थे कि जिन्होंने जैनधर्म की खूब उन्नति की।
आचार्य देवगुप्तसूरिजी महाराज नौ वर्ष उपाध्याय पद और तीन वर्ष सूरिपद पर रह कर जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया। कई भावुकों के निकाले हुए संघ के साथ तीर्थयात्रा की। कई मुमुक्षुओं को जैनदीक्षा दे श्रमणसंघ में वृद्धि की कई मांस मदिरादि कुव्यसन सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित कर उनका उद्धार किया कई मंदिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवा कर जैनधर्म को चिरस्थायी बनाया श्रादि आपने अपने जीवन में अनेक शुभ कार्य कर संसार का उद्धार किया । अन्त में आप अपना आयुष्य को नजदीक जानकर श्रीशत्रु जयतीर्थ की शीतल छाया में विक्रम सं० १७७ में अपने पट्टपर मुनि राजहंस को सूरि बना कर उनका नाम सिद्ध सूरि रख दिया और श्राप १३ दिन के अनशनपूर्वक समाधि के साथ स्वर्ग पधार गये।
अदित्यनाग कुल आप दिवाकर, देवगुप्त यशधारी थे।
सरस्वती की पूर्ण कृपा, सद्ज्ञान विस्तारी थे ॥ दर्शन ज्ञान चरण गुण उत्तम, पुरुषार्थ में पूरे थे।
बन्दन उनके चरण कमलमें, तप तपने में सूरे थे ॥ । इति श्री भगवान पार्श्वनाथ के १९ वें पट्टपर आचार्य देवगुप्तसूरि महा प्रभाविक आचार्य हुए ।
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