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वि० सं० १७४-१७७ वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
जैन व्यापारियों का पाश्चात्य प्रदेशों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध
इस बात का पता लगना कठिन है कि भारतीय व्यापारियों का व्यापार सम्बन्ध पाश्चात्य प्रदेशों के साथ कब से प्रारम्भ हुआ था ? फिर भी हमारे चरित्रादि प्राचीन ग्रन्थों से पाया जाता है कि इतिहास काल के पूर्व हजारों वर्षों से भारतीय व्यापारियों का व्यापार सम्बन्ध पाश्चात्य प्रदेशों के साथ था और वे जल और थल दोनों रास्तों से पाश्चात्य प्रदेशों में आया जाया करते थे। उदाहरण के तौर पर श्रीज्ञाताधर्गकथांग सूत्र के आठवें अध्ययन में उल्लेख मिलता है कि चम्पा नगरी का अरणक नाम का जैन व्यापारी जहाजों में पुष्कल माल लेकर समुद्र को पार कर पाश्चात्य प्रदेश में व्यापारार्थ गया था इसी सूत्र के नौवें अध्ययन में जिनरिख और जिनपाल दो भाइयों के वर्णन में कहा है कि इन दोनों बन्धुओं ने ११ बार जहाजों द्वारा पाश्चात्य प्रदेशों में व्यापार किया और वापिस आये । जब वारहवीं बार वे पुनः जहाजें लेकर गये तो वापिस लौटते समय उनको किसी देवी का उपसर्ग हुआ था । राजा श्रीपाल के चरित्र में भी उल्लेख मिलता है कि वे कोसंबी नगरी के धवल सेठ के साथ भरोंच नगर से पांच सौ जहाजें लेकर बबरकुल ओर रत्नद्वोप में गये । वहां केवल व्यापार ही नहीं पर दोनों स्थानों के राजाओं की कन्याओं के साथ राजा श्रीपाल ने विवाह भी किया था इनके अलावा भी बहुत से उल्लेख मिलते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ और प्रभु महावीर के अन्तर काल में भी कई व्यापारी लोग पाश्चात्य प्रदेशों में व्यापारार्थ गये इतना ही क्यों पर उन भारतीय व्यापारियों ने वहां के लोगों को कई प्रकार की सभ्यता भी सिखाई थी और व्यापार की सुविधा के लिये धातु के सिक्कों का आविष्कार भी किया था । भारतीय व्यापारी किसी को कर हासल नहीं देते थे और उन्होंने वहां जाकर अपना उपनिवेश भी स्थापित किया था ।
जब हम भगवान महावीर और उनके पीछे के समय को देखते हैं तो ऐसे बहुत से प्रमाण मिलते हैं कि भारतीय व्यापारियों का ही क्यों पर कई राजाओं का भी पाश्चात्य प्रदेशों के साथ सम्बन्ध रहा दृष्टिगोचर होता है जैसे राजगृह का राजा श्रेणिक ( विवसार ) का आद्रकपुर नगर के राजा के साथ अच्छा सम्बन्ध था और उस सम्बन्ध को चिरस्थायी बनाने के लिए श्रेणिक के पुत्र अभयकुमार ने आदकपुर के राजकुमार आद्रक के लिये भगवान् आदीश्वर की मूर्ति भेजी थी जिसको देख पाककुंवर को बोध हुआ और उसने भगवान महावीर के पास आकर दीक्षा ली थी जब आद्रकुवर ने जैन दीक्षा ली तो उसने अपनी जन्मभूमि में भी जैनधर्म का अवश्थ प्रचार किया होगा । इसका उल्लेख सूत्रकृताङ्ग सूत्र की टीका में है।
श्री भगवतीसूत्र के नौवां शतक और ३३ वा उद्देशा में महान कुंडनगर का अधिपति ऋषभदत्त और आपकी गृहदेवी देवानन्दा का वर्णन चलता है जो भगवान के माता पिता थे उनके घर में पारस बबरादि अठारह देश की दासियां थीं जैसे
"वहहिं खुज्जहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं बड़ाहियाहिं बव्वरयाहिं ईसिगणियाहिं जाण्हियाहिं चारुगणियहिं पल्लवियाहिं ल्यासयहिं लाउसियाहिं आरबीहिं दमिलिहिं सिंघलीहिं पुलिदीहिं पुक्खलीहिं मुरंडीहिं सवरिहिं पारसीहिं नाणदेसीहिं x x संदेसनेवत्थ गहिया वेसाहिं इत्यादि ।
इससे पाया जाता है कि उस समय भारतीयों का पाश्चात्य देशों के साथ केवल व्यापार ही क्यों पर
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