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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ५७४-५७७ जैसे एक सत्ताधीश धर्मात्मा राजा एवं धनाड्य सेठसाहुकार चाहे तो अपने कल्याणके साथ अनेकोंका कल्याण कर सकते हैं शास्त्रों में कहा है कि जैनकुल में जन्म लिया है तो उनको साधनके होते हुये कमसे कम तीन कार्य अवश्य करने चाहिये १-अपने न्याय से उपार्जन किये द्रव्यसे जिनमन्दिर बनाकर परमेश्वर की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवाना इससे अपना तो कल्याण है ही पर दूसरे अनेक जीवों का कल्याण हो सकता है जैसे श्रावश्यकसूत्र में आचार्य भद्रबाहु ने मन्दिर बनाने के लिये कुँवा का दृष्टान्त दिया है कि कुवा बनाने में बहुत कठिनाइयां सहन करनी पड़ती हैं । मिट्टी कर्दम का लेप शरीर पर लगजाता है पर जब कुँवा के अन्दर से पानी निकलता है तब उसी पानी से मिट्टी कर्दम वगैरह सब धुल जाता है । और वह कुँवा रहेगा तब तक उसका शीतल जल पीकर अनेक आत्मा अपनी तप्त तृषा मिटा कर शान्ति को प्राप्त हो । प बनाने वाले को आशीवर्वाद देंगे इत्यादि । इसी प्रकार मन्दिर बनाने में मिट्टी जल पत्थरादि का उपयोग करना पड़ता है और देखने में द्रव्य प्रारंभ भी दीखता है पर जब मन्दिर तैयार हो उसकी प्रतिष्ठा होकर परमात्मा की मूर्ति स्थापित हो जाती है उसकी भावना से वह द्रव्यारम्भ रूपी लेप स्वयं नष्ट होजाता है और जहाँ तक वह मन्दिर बना रहेगा अनेक भव्यात्मायें परमेश्वर की सेवा भक्ति पूजा भावना कर अपना कल्याण करेंगी और मन्दिर बनाने वालों के शुभ कार्य का अनुमोदन करते रहेंगे अतः गृहस्थों के लिये साधनों के होते हुये पहला यह कार्य करना उसका खास कर्त्तव्य है महानिशीथ सूत्र में मन्दिर बनाने वाला श्रावक की गति बारहवां स्वर्ग की बतलाई है । २-दूसरा तीर्थों की यात्रा के लिये श्रीसंघ को अपने मकान पर बुलाकर अपने हाथों से उनके तिलक कर संघ निकाल कर संघ को तीर्थयात्रा करवानी चाहिये । जैनधर्म में संघपति पद का महत्व कम नहीं है जोकि श्रीसंघ को तीर्थकर भी नमस्कार करते हैं । अतः साधन एवं सामग्री हो तो जीवन में एक बार संघ अवश्य निकाले। ३-तीसरे महाप्रभाविक श्री भगवती आदि सूत्र का अपनी ओर से महोत्सव कर गुरुमहाराज के कर कमलों में अर्पण कर श्रीसंघ को तीर्थङ्करों के वचन सुनाना । इस प्रकार बन सके तो तीनों कार्य करे । बाद में दीक्षा लेकर चारित्र की आराधना करनी चाहिये इत्यादि विस्तार से व्याख्यान सुनाया। D-चतुर्थ मनुष्य के लिए पहले बतला दिया है कि वह अप डूबता है और अनेकों को डुबाता है इत्यादि । ___ उस व्याख्यान में शाह भैरा भी था सूरिजी का उपदेश ध्यान लगा कर सुना और अपने दिल में निश्चय कर लिया कि आज मेरे पास सब साधन तैयार हैं कि मैं सूरिजी के बतलाये तीनों कार्य कर सकता हूँ । बस फिर तो देरी ही क्या थी सूरिजी की सम्मति लेकर चतुर कारीगरों को बुलवा कर मन्दिर का कार्य प्रारम्भ कर दिया जिसकी देख रेख के लिये अपने पुत्र धनदेव को मुकर्रर कर दिया। शाह भैरा ने सोचा कि यदि गुरु महाराज का चतुर्मास यहाँ हो जाय तो श्रीभगवतीसूत्र का महोत्सव कर के दूसरा कार्य भी कर लू बाद चतुर्मास के तीर्थो की यात्रार्थ संघ भी निकाल दूं इतने में मन्दिर तैयार हो जाय तो इसकी प्रतिष्ठा भी करवा दूं। अतः एक वर्ष में तीनों कार्य बन जाय तो सूरिजी की आज्ञा का पालन हो सकता है। सूरिजी को चतुर्मास के लिये श्रीसंघ ने बहुत आग्रह पूर्वक विनती की थी तथा शाह भैरा ने अपने भाव प्रदर्शित करते हुये कहा कि पूज्यवर ! आपके विराजने से हमारे सब मनोरथ सिद्ध होजायेंगे। अतः कृपा कर चतुर्मास की स्वीकृति शीघ्र दे दीरावें । महात्माओं का तो जीवन ही परोपकार के लिये होता है। सूरिजी महाराज ने लाभालाभ का विचार कर चतुर्मास नागपुर में करने की मन्जूरी फरमादी । बस, नागपुर के श्रीसंघ में खूब ही हर्ष आनन्द एवं उत्साह फैल गया। शाह भैरा ने श्री भगवती सूत्र का आदेश लेकर बड़ा भारी महोत्सव किया और रात्रि जागरण पूजा प्रभावना स्वामीवात्सल्यादि किया और हीरा शाह भैरा को मूरिजी का उपदेश ] ५७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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