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________________ [३७] सादा, बहुत मूल्यवान तथा ब्राह्मणों के मतों से भिन्न है तथा यह बौद्ध के समान नास्तिक नहीं है । (३७) जर्मनी के डाक्टर जोन्सहर्टल ता. १७-६-१९०८ के पत्र में कहते हैं कि मैं अपने देश सियों को दिखाउंगा कि कैसे उत्तम नियम और उंचे विचार जैनधर्म और जैन श्राचार्यो में हैं। जैनों का साहित्य बौद्धों से बहुत बढ़कर है और व्यों २ मैं जैनधर्म और उसके साहित्य को समझता हूँ त्यों २ मैं को अधिक पसंद करता हूँ । (३८) मुहम्मद हाफिज सैयद बी. ए. एल. टी. थियॉसॉफिकल हाई स्कूल कानपूर लिखते हैं: "मैं न सिद्धांत के सूक्ष्मतत्वों से गहरा प्रेम करता हूँ ।" I (३९) श्रीयुत् तुकाराम कृष्ण शर्मा लट्टु बी. ए. पी. एच. डी. एम. आर. ए. एस. एम. ए. एस. बी. एम. जी. ओ. एस. प्रोफेसर संस्कृत शिलालेखादि के विषयकें अध्यापक क्रीन्स कॉलेज बनारस । स्याद्वाद् महाविद्यालय काशी के दशम वार्षिकोत्सव पर दिये हुए व्याख्यान में से कुछ वाक्य उधृत " सबसे पहले इस भारतवर्ण में "रिषभदेवजी" नाम के महर्षि उत्पन्न हुए। वे दयावान् भद्र परिणामी, सबसे पहिले तीर्थंकर, हुए जिन्होंने मिथ्यात्व अवस्था को देखकर " सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यग्चारित्र रूप मोक्षशास्त्र का उपदेश दिया। बस यह ही जिनदर्शन इस करूपमें हुआ । इसके पश्चात् श्रजित नाथसे लेकर महावीर तक तेइस तीर्थकर अपने अपने समयमें अज्ञानी जीवों का मोह अंधकार नाश करते थे । (४०) साहित्यरत्न डाक्टर रवीन्द्रनाथ टागोर कहते हैं कि महावीरने डीडींग नादसे हिन्दमें ऐसा संदेश फैलाया कि: - धर्म यह मात्र सामाजिक रूढि नहि हैं परन्तु वास्तविक सत्य हैं, मोक्ष यह बाहरी क्रियाकांड से नहिं मिलता, परन्तु सत्य-धर्म स्वरूपमें आश्रय लेने से ही मिलता है । और धर्म और मनुष्यों में कोई स्थायी भेद नहीं रह सकता । कहते आश्चर्य पैदा होता है कि इस शिक्षाने समाज के हृदयमें जड़ करके बैठी हुई भावनारूपी विघ्नोंको त्वरासे भेद दिये और देशको वशीभूत कर लिया, इसके पश्चात् बहुत समय तक इन क्षत्रिय उपदेशकोंके प्रभाव बलसे ब्राह्मणों की सत्ता अभिभूत हो गई थी । (४१) हिन्दी भाषा सर्वश्रेष्ठ लेखक धुरंधर बिद्धान् पंडीत् श्रीमहावीरप्रसादजी द्विवेदीने प्राचीन जैन लेख - संग्रहकी समालोचना "सरस्वती" में की है । उसमें से कुछ वाक्य ये हैं: ( १ ) प्राचीन ढके हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े बड़े शास्त्री तक अब भी नहीं जानते कि जैनियों का स्वाद्वाद किस चिडियाका नाम है । धन्यवाद है जर्मनी, फ्रान्स और इंग्लेंड के कुछ विद्यानुरागी विशषज्ञोकों जिनकी कृपा से इस धर्म के अनुयायिओंको कीर्तिकलापकी खोज और भारत वर्ष के साक्षर जैनों का ध्यान कष्ट हुआ यदि ये विदेशी विद्वान् जैनों के धर्म प्रन्थों आदि की आलोचना न करते । यदि ये उनके कुछ प्रन्थों का प्रकाश न करते और यदि ये जैनों के प्राचीन लेखों की महता प्रकट न करते तो हम लोंग शायद वही ज्ञान के अंधकार में ही डूबे रहते । ( २ ) भारतवर्ष में जैन धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी साधुओं ( मुनियों) और आचायों में से अनेक जनोंने धर्मोपदेशके साथ ही साथ अपना समस्त जीवन प्रन्थरचना और प्रन्थ संग्रह में कर दिया है. ( ३ ) बीकानेर, जैसलमेर और पाटण आदि स्थानों में हस्तलिखित पुस्तकों के गाडीयों बस्ते अब भी रक्षीत पाये जाते है । ( ४ ) अकबर इत्यादि मुगल बादशाहों से जैन धर्मकी कितनी सहायता पहुँची, इसका भी उल्लेख अन्यों में हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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