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________________ । ३८] जैन शास्त्रों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव का संक्षिप्त इतिहास लिख देता हूँ जिससे पाठक जैन __ धर्म का प्राचीन इतिहास से अवगत होजायंगे । भगवान् ऋषभदेव का समय जैसे काल का श्रादि अन्त नहीं है वैसे सृष्टि का भी आदि अन्त नहीं है अर्थात् सृष्टि का कर्ता-हर्ता कोई नहीं है । अनादि काल से प्रवाह रूप चली आती है और भविष्य में अनन्तकाल तक ऐसे ही संसार चलता रहेगा। इसका अन्त न तो कभी हुआ और न कभी होगा। सृष्टि में चैतन्य और जड़ एवं मुख्य दो पदार्थ है आज जो चराचर संसार दिखाई देता है वह सब चैतन्य और जड़ वस्तु का पर्यायरूप है । काल का परिवर्तन से कभी उन्नती कभी अवनति हुआ करती है उस कालका मुख्य दो भेद है ( १ ) उत्सर्पिणी (२) अवसर्पिणी । इन दोनों को मिलाने से कालचक्र होता है ऐसा अनन्त कालचक्र भूतकाल में हो गये और अनंते ही भविष्यकाल में होगा वास्ते काल का आदि अन्त नहीं है । जब काल का आदि अन्त नहीं है तब काल की गणना करने वाला संसार सृष्टि का भी आदि अन्त नहीं होना स्वयं सिद्ध है। (१) उत्सर्पिणी काल के अन्दर वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान जीवों का आयुष्य और शरीर ( देहमान ) आदि सब पदार्थों की क्रमशः उन्नति होती है । (२) अवसणी काल में पूर्वोक्त सब बातों की क्रमशः अवनति होती है पर उन्नति और अवन्नति है वह समूहापेक्षा है न कि व्यक्ति अपेक्षा। जब समय की अपेक्षा काल अनंता हो चुका है तब इतिहास भी इतना ही कालका होना एक स्वभावी बात है परंतु वह केवली गम्य है न कि एक साधारण मनुष्य उसे कह सके व लिख सके । जैसे हिन्दू धर्ममें कृतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग से कालका परिवर्तन माना है, वैसे ही जैनधर्म में प्रत्येक उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी के छे छे हिस्से (आरा) द्वारा कालका परिवर्तन माना गया है । (१) उत्सर्पिणी के छे हिस्से ( १ दुःखमादुःखम (२) दुःखम (३) दुःखमासुखम (४) सुखमादुःखम (५) सुखम (६ ) सुखमासुखम, इस का स्वभाव है कि वह दुःखकी चरमसीमा से प्रवेश हो क्रमशः उन्नति करता हुआ सुख की चरमसीमा तक पहुँच के खतम होजाता है । बाद अवसर्पिणी का प्रारंभ होता है। (२) अवसर्पिणी के छे हिस्से (१) सुखमासुखम (२) सुखम (३ ) सुखमादुःखम (४) दुःखमासुखम (५) दुःखम (६) दुःखमादुःखम. इस काल का स्वभाव है कि वह सुख की चरमसीमा से प्रवेश हो क्रमशः अवनति करता हुवा दुःख की चरम सीमा तक पहुँच के खतम होजाता है। बाद फिर उत्सर्पिणी कालका प्रारंभ होता है । एवं एक के अन्त में दूसरी घटमाल की माफीक काल घूमता रहता है। वर्तमान समय जो वरत रहा है वह अवसर्पिणी काल है। आज मैं जो कुछ लिख रहा हूँ वह इसी अवसर्पिणी काल के छ हिस्सों के लिये है। अवसर्पिणी काल के छे हिस्से में पहले हिस्से का नाम सुखमासुखमारा है, वह चार कोडाकोड सागरोपम का है उस समय भूमिकी सुन्दरता सरसाइ व कल्पवृक्ष बड़े ही मनोहर-अलौकिक थे उस समय के मनुष्य अच्छे रूपवान, विनयवान्, सरलस्वभावी, भद्रिक परिणामी, शान्तचित्त, कषायरहित, ममत्वरहित, पदचारी, तीन गाउका शरीर, तीन पल्योपमका आयुष्य, दोसो छपन्न पास अस्थि, असी मसी कसी, कर्म रहित दश प्रकार के कल्पवृक्ष मनइच्छित भोगोपभोग पदार्थ से जिनको संतुष्ट करते थे उन युगलमनुष्यों Jain Ed. ( दम्पति ) से एक युगल पैदा होता था। वह ४९ दिन उसका प्रतिपालन कर एक को छींक दूसरे को..
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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