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[ ३६ ] प्रवासी आते ही स्वर्ग पहुँच जाते थे पीछे रहा हुआ युगल अपनी शेष अवस्था में दम्पति सा बरताव स्वयं ही कर लेते थे उस जमाने के सिंह व्याघ्रादि पशु भी भद्रिक, बैरभावरहित, शान्तचित्तवाले ही थे जैसे जैसे काल निर्गमन होता रहा वैसे वैसे वर्ण गन्ध रस स्पर्श संहनन संस्थान देहमान आयुष्यादि सब में न्यूनता होती गई । यह सब अवसर्पिणी काल का ही प्रभाव था।
(२) दुसरे हिस्से का नाम सुखमबाग वह तीन क्रोडाक्रोड सागरोपमका था इस समय भी युगलमनुष्य पूर्ववत् ही थे पर इनका देहमान दो गाउ और आयुष्य दो पल्योपमका था प्रतिपालन ६४ दिन पास अस्थि १२८ और भी काल के प्रभाव से सब बातों में क्रमशः हानि होती आइ थी।
(३) तीसरे हिस्से का नाम सुखमदुःखमारा यह दो कोडाकोड सागरोपम का था एक पस्योपम का आयुः एक गाउ का शरीर ७९ दिन प्रतिपालन ६४ पासास्थि आदि क्रमशः हानि होती रही इसके तीन हिस्से से दो हिस्सा तक तो युगलधर्म बराबर चलता रहा पर पिछले हिस्से में कालके प्रभाव से कल्पवृक्ष फल देने में संकोच करने लगे इस कारण से युगल मनुष्यों में ममत्वभावका संचार हुश्रा जहां ममत्वभाव होता है वहां क्लेश होना स्वभाविक ही है जहां लेश होता है वहां इन्साफ की भी परमावश्यकता हुआ करती है। युगल मनुष्य एक ऐसे न्यायाधीश की तलासी में थे ठीक उससमय एक युगल मनुष्य उज्जवल वर्ण के हस्तीपर सवारी कर इधर-उधर घूमता था युगलमनुष्यों ने सोचा कि यह सब में बड़ा मनुष्य है "कारण कि इस के पहले किसी युगलमनुष्य ने सवारी नहीं करी थी" सब युगलमनुष्यों ने एकत्र हो उस सवारी वाले युगल को अपना न्यायाधीश बनाके उसका नाम “विमलवाहन" रखदिया कारण उसका बाहन सुफेद (विमल) था जब कोई भी युगलमनुष्य अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे तब वही 'विमलबाहन' उसको दंड देने को 'हकार दंड नीति मुकर्रर करी तदानुसार कह देता कि हे ! तुमने यह कार्य किया ? इतने पर वह युगल लज्जित विलज्जित हो जाता और तमाम उमर तक फिर से ऐसा अनुचित कार्य नहीं करता था। कितने काल तो इसमें निर्गमन हो गया । बाद विमलबाहन कुलकर की चंद्रयशा भार्या से चक्षुष्मान नामका पुत्र हुआ वह भी अपने पिता के माफिक न्यायाधीश ( कुलकर) हुआ, उसने भी 'हकार' नीति का ही दंड रखा चक्षुष्मान की चंद्राकान्ता भार्या से यशस्वी नाम का पुत्र हुआ वह भी अपने पिता के स्थान कुनकर हुआ पर इसके समय कल्पवृक्ष बहुत कम हो गये जिसमें भी फल देने में बहुत संकीर्णता होने से युगलमनुष्यों में और भी क्लेश बढ़ गया 'हकार' नीतिका उल्लंघन होने लगा तब यशस्वी ने हकार को बढ़ा के 'मकार' नीति बनाई अगर कोई युगलमनुष्य अपनी मर्यादा का उल्लंघन करे उसे 'मकार दंड अर्थात् 'मकरो' इससे युगलमनुष्य बड़े ही लज्जितविलज्जित होकर वह काम फिर कदापि नहीं करते थे । यशस्वी की रूपास्त्रि से अभिचंद्र नामका पुत्र हुआ वह भी अपने पिता की माफिक कुलकर हुआ उसके समय हकार मकार नीति दंड रहा अभिचंद्र के प्रतिरूपा नाम की भार्या से प्रसेनजीत नामका पुत्र पैदा हुआ वह भी अपने पिता के स्थान कुलकर हुआ इसके समय काल का और भी प्रभाव बढ़ गया कि इसको 'हकार' 'मकार से बढ़ के 'धिकार' नीति बनानी बड़ी अर्थात् मर्यादा उल्लंघने वाले युगलों को, 'धिकार' कहने से वह लज्जितविलज्जित हो फिर दूसरीवार ऐसा कार्य नहीं करते थे प्रसेनजीत की चक्षुष्कान्ताखिसे मरुदेव नामका पुत्र हुआ, वह भी अपने पिता के स्थान कुलकर हो तीनों दंड नीति से युगलमनुष्यों को इन्साफ देता रहा मरुदेव की भार्या श्रीकान्ता की कुक्षी से नामी नामका पुत्र हुश्रा वह भी अपने पिता के पद पर कुलकर हुआ .इसके समय भी तीनों प्रकार की
वीति प्रचलित थी पर कालका भयंकर प्रभाव युगलमनुष्यों पर इस कदर का हुआ कि वह हकार मकार विकार ऐसी तीनों प्रकार की दंड नीति को उल्लंघन करने में अमर्यादित हो गये थे उस समय कल्पवृक्ष भी
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