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________________ आचार्य यक्षदेवमरि का जीवन ] [ओसवाल संवत् ५८ राजा चन्द्रसेनादि सब लोग सूरिजी को वन्दन करने को श्राये सूरिजी ने अपनी विद्वतापूर्ण त्याग धैराग्य मय धर्मोपदेशना दी जिसको श्रवण कर श्रोताजन अपना कल्याण करने को तत्पर हो गये । महाराजा चन्द्रसेन और श्रापकी पट्टराणी सूरिजी ( अपने पुत्र से ) से प्रार्थना की कि आप तो संसार से मुक्त हो अपना कार्य सिद्ध कर लिया पर अब हमारी अन्तिमावस्था है कल्याण का रास्ता बतलाइये। सूरिजी ने कहा कि सबसे पहिले तो आपको राज सम्बन्धी खटपट से मुक्त होना चाहिये दूसरा अब शेष उमर तीर्थ श्री श@जय की शीतल छाया में रह कर धर्माराधना में व्यतीत करना चाहिये कारण एक तो वहाँ के परमाणु स्वच्छ है दूसरी संसार सम्बन्धी सब कार्यों से निवृत्ति मिलेगा इत्यादि सूरिजी का कहना स्वीकार कर राजा ने अपने पुत्र धर्मसेन को राज्य देकर शत्रुजय का संघ निकालने की तैयारी करनी शुरू कर दी। चतुर्विध श्रीसंघ को श्रामन्त्रण भेज कर बुलाये । सब सामग्री तैयार हो जाने पर सूरिजी महाराज ने संघपतिपद महाराजा चन्द्रसेन को दिया और शुभमुहूर्त में संघ प्रस्थान कर दिया क्रमशः यात्रा करते हुए सिद्धगिरि पर आये और वहाँ की यात्रा कर अनेक सुकृत कार्य किये राजा चन्दन जैनधर्म का एक महान प्रभाविक राजा हुआ एवं जैनधर्म का खूब प्रचार बढ़ाया। ___ भगवान महावीर की परम्परा में चतुर्थ पट्टधर श्राचार्य शय्यं भवसूरि हुये। आपका जीवन प्राचार्य रत्नप्रभसूरि के जीवन प्रकरण में लिखा जा चुका है कि आपने भगवान शान्तिनाथ की प्रतिमा देख कर प्रतिबोध पाया था। जैसे कहा है कि: यत्-सिजंभवं गणहरं जिणपडिमादसणेण पडिबुद्धं । आचार्य शव्यंप्रभसूरि जाति के ब्राह्मण थे आचार्य प्रभवस्वामी के पास दीक्षा लेकर चतुर्दशपूर्वधर ए और अपने पुत्र मनक को दीक्षा देकर उनका स्वल्प आयु जान कर उनको श्राराधिक पद देने के लिये दशवैकालिक सूत्र की रचना की। कहा है कि:कृतं विकालवेलायाँ, दशाध्ययनगर्भितम् । दशवकालिकमिनि नाम्ना शास्त्रं बभूव तत् ॥१॥ अतः परं भविष्यति, प्राणिनोह्यल्पमेधसः । कृतार्थास्ते मनकवत् , भवतु त्वत्प्रसादतः ॥ २ ॥ श्रुताँभोजस्य किंजल्कं, दशवैकालिकं ह्यदः । आचम्पाचम्प मोदन्ता-मनगार मधुव्रताः ॥ ३ ॥ इति संघोपरोधेन, श्रीशय्यंभव सूरिभिः । दशवैकालिको ग्रन्थो, न सवत्रे महात्मभिः ॥ ४ ॥ __ आचार्य शर्यभवसूरि गृहस्थावास २८ वर्ष व्रत ११ वर्ष युगप्रधान २३ वर्ष एवं सर्वायुष्य ६२ वर्ष का पूर्ण कर वीर निर्वाण से ९८ वें वर्ष में आप अपने पट्टधर मुनिवर्य यशोभद्र को प्राचार्य पद पर नियुक्त कर स्वर्ग को प्राप्त हुए। आचार्य वर श्री यक्षदेव सप्तम पट्टधर हुये। आप क्षत्रिय वंश भूषण सिंध पद्रावित हुये ॥ आखेट को जाते हुये श्री ककराजकुमार को। नृप रुद्राट लाखों मनुज उपकृत किये हरभार को॥ करके कृपा आचार्य ने यों सिंध को जीवन दिया। भ्राँति सबकी दूर करजिनधर्म में दीक्षित किया। । इति श्री पार्श्वनाथ प्रभु के सातवें पाट पर आचार्य श्रीयक्षदेवसूरि महाप्रभाविक हुये । २३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.gamelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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