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________________ वि० पू० ३४२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास -प्राचार्य कक्कसूरि आचार्योऽष्टम कक्कमूरिर्भवत्क्षत्रस्य वंशाङ्कुरःसौराष्ट्रऽथ च कच्छदेश विषयेभ्रान्त्वा च देव्यावलिम् । सेवित्वा नृपज तथा जनगणं राजान मादिश्य-वाहिंसायाः परमं व्रतं जिनमते जातो मुनि हीरकः । प्राचार्य कक्कसूरि-- श्रापश्री के लिये विशेष लिखने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि श्राप पहले पढ़ आये हैं कि श्राप शिवनगर के राजा रुद्राट के पुत्र थे। प्राचार्य यक्षदेवPory सूरि के उपदेश से सिन्ध जैसे पाखण्डियों के प्रदेश में जैनधर्म का प्रचार करने में काफी सफलता पा चुके थे। कई जैन मन्दिरों का भी आपने निर्माण करवाया था। इतना ही क्यों पर आप अपनी चढ़ती जवानी में राज रमणी एवं संसारी सुखों को तिलांजलि देकर अपने पिता राव रूद्राट एवं १५० नर-नारियों के साथ सूरिजी के चरण-कमलों में भगवती जैन दीक्षा ली थी। तत्पश्चात् ज्ञानाभ्यास करने में भी आपने कुछ भी उठा नहीं रक्खा अर्थात स्वपरमत के साहित्य का ठीक अध्ययन कर लिया । तत्पश्चात प्राचार्य यक्षदेवसूरि ने आपको सर्वगुण सम्पन्न जान कर, प्राचार्य पद से विभूषित कर चतुर्विध संघ के नायक बनाये । आचार्य कक्कसूरि-तरुण सूर्य के किरणों की भांति अपने प्रखर ज्ञान का चारों ओर प्रकाश करने में कुछ भी उठा नहीं रक्खा । श्राप सच्चे प्रतिज्ञा पालक थे। आपने जिस समय दीक्षा ली थी उस समय प्रतिज्ञा की थी कि मैं सब से पहले जननी जन्मभूमि का उद्धार करके ही दम लुगा और आपने ऐसा ही किया। इतना ही क्यों पर आपने तो हजारों सिन्धी सुपुत्तों को जैनधर्म में दीक्षित भी कर दिये ।। धन्य है सिन्ध भूमि के सुपुत्त नर रत्नों को कि जिन्होंने मांसाहारी सिन्ध प्रदेश को आज जैनधर्ममय एवं अहिंसाप्रधान भुमि बना दी। जहाँ देखो वहाँ ऊँचे २ शिखर वाले जैन मन्दिरों की ध्वजायें, मनुष्य मात्र को धर्म की ओर आकर्षित कर रही हैं। यह सब स्वर्गस्थ आचार्य यक्षदेवसूरि के प्रबल पुरुषार्थ एवं राजकुवर कक्क अर्थात् आचार्य कक्कसूरि की असीम कृपा का ही सुन्दर एवं स्वादिष्ट फल है । अस्तु । ___एक समय आचार्य कक्कसूरि अपने ५०० शिष्यों के साथ सिन्ध भूमि में विहार करते हुए शिवनगर की ओर पधार रहे थे। जैसे कोई चक्रवर्ती विजय कर अपने नगर की ओर आ रहा हो । बस, नगरवासियों को खबर मिलते ही उनका उत्साह ऐसा बढ़ गया कि जैसे शरद पूर्णिमा के चन्द्र की शीतल किरणों से समुद्र का जल बढ़ जाता है । क्या राजा और क्या प्रजा, सब लोग सूरिजी के स्वागतार्थ बहुत दूर तक गये । जब सूरिजी के दर्शन हुये तो उनके हर्ष का पार नहीं रहा। बड़े ही समारोह के साथ नगर-प्रवेश करवाया। महावीर मन्दिर का दर्शन कर उपाश्रय में पधारे और थोड़ी पर वैराग्यमय हृदयग्राही देशना दी जिसका प्रभाव उपस्थित लोगों पर बहुत अच्छा हुआ। २३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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