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वि० सं० १९९-२१८ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
श्रादित्यनाग गोत्र की चोरडिया शाखा चित्रकोट नगर में आदित्यनाग गोत्रीय शाह अामदेव निंबदेव नाम के कोटीध्वज व्यापारी थे और उसी नगर में आमदेव निदेव नाम के प्राग्वटवंशीय कोटीध्वज व्यापारी थे। पहिले जमाने में कागज पत्र एवं समाचार कासिदों द्वारा ही आया जाया करते थे। एक समय उज्जैन से किसी व्यापारी ने प्राग्वट ग्रामदेव निंबदेव के नाम से पत्र लिख कर कासिद के हाथ दे दिया कि तुम चित्रकोट जाकर पत्र का जवाब ले आओ कासिद ने चित्रकोट जाकर बाजार में पूछा कि श्रामदेव निंबदेव कौन है ? आदित्यनाम गोत्रीय ग्रामदेव पास में खड़ा था उसने कासिद से कहा प्रामदेव मैं हूँ तेरे क्या काम है ? कासिद ने अपने पास का पत्र श्रामदेव को दे दिया ! अामदेव पत्र पढ़ कर उसमें जो व्यापार सम्बन्धी तेजी मंदी का समाचार था उसको जान गया । कासिद को भोजन करवा कर कह दिया कि तू थका हुआ है थोड़ा सोजा । कासिद सो गया। आमदेव ने अपना काम कर लिया बाद जब कासिद जगा तो पत्र उसको दे दिया और कहा कि यह पत्र तो दूसरे श्रामदेव का है तू वहां जाकर पत्र दे दे । कासिद ने प्राग्वट वंशी आमदेव के यहां जाकर पत्र दिया उसने पत्र बाँच कर व्यापार के लिये भाव मॅगाये तो थोड़ी ही देर में भाव बहुत तेज हो गये तब कासिद को कहा भाई तू थोड़े पहले आजाता तो अच्छा होता। कासिद ने कहा सेठजी मैं तो कब का ही आया हुआ था पर एक दूसरे प्रामदेव ने मुझे रोक लिया था आमदेव ने सोचा कि दूसरा श्रामदेव तो आदित्यनाग गोत्रिय है शायद उसी ने इस पत्र से बाजार को तेज कर दिया होगा अतः प्राग्वट-श्रामदेव ने जाकर श्रादित्य नाग गोत्रिय अामदेव को कहा कि आपने हमारा पत्र चोर लिया यह अच्छा नहीं किया इत्यादि । उस दिन से आदित्यनाग गोत्रिय अामदेव चोरलिया के नाम से पुकारे जाने लगे। उस चोरलिया का अपभ्रंश चोरडिया हो गया और वह अद्यावधि भी विदमान है । इसका समय वंशावली कार ने विक्रम संवत् २०२ का बतलाया है। चोरडिया जाति का मूल गोत्र आदित्यनाग है।
कई लोग चोरडिया जाति की उत्पत्ति विक्रम की बारहवीं शताब्दी में राठौर राजपूतों से हुई बतलाते हैं और राठौर राजपूतों को प्रतिबोध देकर उनकी जाति चोरड़िया हुई कहते हैं यह बिल्कुल असत्य एवं कल्पना मात्र ही है । इससे करीब १५० वर्षों के इतिहास का खून होता है । इन १५०० वर्षों में चोरडिया जाति के नर रल्नों ने देश समाज और धर्म की बड़ी बड़ी सेवायें करके जो यश प्राप्त किया है उस सब पर पानी फिर जाता है । गच्छ कदाग्रह एक कैसी बलाय है कि अपने स्वार्थ के लिये शासन को कितना नुकसान पहुँचा देते हैं जिसका यह एक ज्वलन्त उदाहरण है इसी इतिहास ग्रन्थ में आप देखेंगे कि विक्रम की बारहवीं शताब्दी के पूर्व चोरड़िया जाति के दानवीरों ने परमार्थ के क्या २ काम किये हैं। अतः चोरडिया जाति
आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है और यह बात विक्रम की पन्द्रहवीं सोलहवीं शताब्दी के शिलालेख के प्रमाण से और भी पुष्ट हो जाति है कि चोरडिया जाति स्वतंत्र गोत्र नहीं है पर आदित्यनाग गोत्र की एक शाखा है । देखिये--
"सं. १४८० वर्षे ज्येष्ठ वद ५ उकेश ज्ञातीय आइच्चणाग गोत्रे सा० आ० सा० भा० वाच्छि पु० सा० आजु नाहू भा. रूपी पु० खेमा ताल्हा सावड़ श्रीनेमिनाथ विवं का? पूर्वत लि० पु. आत्मा २० उपकेश कुक प्र० श्री सिद्धसूरिभिः
_ "बाबुपूर्ण० खण्ड पृष्ट १९ लंखांक ७७"
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[ चोरडिया जाति की उत्पति
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