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आचार्य रत्नप्रभरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५९९-५९९
संघ निकलते तो पूर्व की तमाम यात्रा कर लेते आचार्य रत्नप्रभसूरि के शासन समय में संघ निकले जिसकी सूची पट्टावलियों वंशावलियों में इस प्रकार दी हुई मिलती है ।
१ - - उपकेशपुर से बाध नाग गौत्रीय पुनडने श्री शत्रुजय का संघ निकाला
२ - पाल्हिकापुरी से सुचंती गौत्रीय आखा ने
३ - पद्मावती से प्राग्वट वंशीय नोढ़ा ने
४ - कुर्श्वपुरा से तप्तभट्ट गौत्रीय कुँवा ने
सूरिजी महाराज का स्वर्गवास ]
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शिखरजी शत्रुजय का
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५ - चन्द्रावती से मंत्री रणधीर ने श्री सम्मेत
६ – डाबरेल नगर से श्रेष्टी
वय्ये नोंघरण ने श्री जावड़ा ने
७ - तक्षिला से भाद्रगौत्रीय ८ - नागपुर से श्रदित्यनाग
देदा ने
९ - नारदपुरी से कुमट गौ०
सारंग ने
सलखण ने
हरपाल ने
१० - सालीपुर से चिंचट गौ० ११ - हर्षपुरा से वलाह गौ० १२ - कोरंटपुर से श्रीमाल० रावल ने १३ - शिवपुरी से प्राग्वट दूधा ने श्री सम्मेत शिवर का
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आचार्य रत्नप्रभसूरि एक महान् प्रभाविक आचार्य हुये हैं आपका विहार क्षेत्र बहुत ही विशाल था । कुनाल से लगाकर महाराष्ट्रीय प्रान्त तक आपने भ्रमण किया था आपनी के साधु साध्वी तो सब प्रान्तों में भ्रमण कर धर्म प्रचार करते थे । आचार्यश्री ने अपने जीवन में कई पाँचसो नरनारियों को दीक्षादी थी और हजारों लाखों मांस मदिरा सेवियों को जैनधर्म में दीक्षित किये श्रतः आपश्री का जैन समाज पर महान उपकार हुआ है । ऐसे जैनधर्म के रक्षक पोषक एवं वृद्धक महात्माओं के चरणों में कोटि कोटि नमस्कार हो । श्रेष्टिकुल श्रृंगार अनोपम, पारस के अधिकारी थे ।
रतनभरि गुण भूरि, शासन में यशधारी थे ॥ योगविद्या में थी निपुणता, पढ़ने को कई आते थे ।
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अजैनों को जैन बनाये, जिनके गुण सुर गाते थे |
॥ इति श्रीभगवान् पार्श्वनाथ के २१ वें पट्ट पर आचार्य रत्नप्रभसूरि महाप्रभाविक आचार्य हुये ॥
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