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________________ आचार्य केशीश्रमण का जीवन ] [वि. पू० ५५४ वर्ष प्रदेशी-हे भगवान ! मैं जानता हूँ कि परिषदा चार प्रकार की होती है (१) क्षत्रियों की परिषदा (२) गाथापतियों की परिषदा (३) ब्राह्मणों की परिषदा (४) ऋषियों की परिषदी केशीश्रमण-प्रदेशी तू यह भी जानता है कि इन परिषदों का अपमान करने से क्या सजा मिलती है ? प्रदेशी-हे प्रभो मैं जानता हूँ कि (१) क्षत्रियों की परिषदा का अपमान करने से सूली या फांसी की सजा (२) गाथापतियों की परि० का अपमान करने से डंडा या हाथ चपेटा की मार (३) ब्राह्मणों की परि० का अपमान करने से अक्रोष वचन और (४) ऋषि परि० का अपमान करने से मूद, तुच्छ, मूर्ख आदि शब्दों की सजा दी जाती है। केशीश्रमण-हे प्रदेशी ! तू जानता हुआ ऋषियों का अपमान करता है जब सजा मिलती है तब इज्जत और अपमान का बहाना लेता है। क्योंकि तुम जानते हुए मेरे से देदा टेढ़ा बर्ताव करते हो, क्या यह अपमान नहीं है ? - प्रदेशी-हे प्रभो ! आप का कहना सत्य है । आए मेरे मन की बात को जानते हो हे भगवान ! मैं आपकी पहली व्याख्या से ही ठीक समझ गया था परंतु अपनी जैसी श्रद्धा वाले अपने साथियों को समझाने के लिए मैंने आपसे प्रतिकूल प्रश्न किये थे । फेशीश्रमण-हे राजन् ! आप जानते हो लोक में व्यवहारिया (व्यापारी) कितने प्रकार के होते हैं ? प्रदेशी- हे स्वामिन् ! मैं जानता हूँ । व्यवहारिया चार प्रकार के होते हैं जैसे (१)--यदिसाहूकार रुपये मगने को आया है उसको रुपया भी देवे और सत्कार भी करे (२) रुपया देवे पर सत्कार न करे (३) रुपया न देवे और सत्कार करे (४) न रुपया दे न सत्कार करे । केशीश्रमण-हे प्रदेशी ! तू इन व्यवहारियों में से दूसरे नम्बर का व्यवहारिया है क्योंकि तू अपने मन में तो ठीक समम गया है परंतु बाहर दिखाव में आदर सत्कार नहीं करता है। भला तुम्हारा मन गवाही देता है फिर लज्जा की क्या बात है, खुल्लमखुल्ला सत् धर्म को क्यों नहीं स्वीकार कर लेते हो ? ... ८-प्रश्न-भगवान् श्राप शरीर और जीव को प्रत्यक्ष हस्तामलक की माफिक बतला देवें तो मैं आपका कहना मानने को तैयार हूँ। केशीश्रमण-पास में रहे हुये वृक्ष के पान चलते हुए देख कर पूछा कि हे प्रदेशी ! यह पान क्यों चलते हैं ? प्रदेशी-वायुकाय चलने से पत्ते चल रहे हैं। केशीश्रमण-प्रदेशी यदि तू वायुकाय से पत्ता चलना मानता है तो उस वायुकाय को हस्तामलक की तरह बता सकता है ? प्रदेशी-नहीं प्रभो ! वायुकाय बहुत सूक्ष्म है उसे कैसे बताई जाय। केशीश्रमण-जब वायुकाय आठ कर्म तीन लेश्या और चार शरीरवाला होने पर मी तू नहीं बतला सकता है तो अरूपी अशरीरी जीव को कैसे बतलाया जाय ? हे प्रदेशी ! एक जीव ही क्यों परन्तु छदमस्थ मनुष्य इस बातों को नहीं देखता और नहीं बतला सकता है। १-धर्मास्तिकाय २-अधर्मास्तिकाय ३-श्राकाशस्तिकाय ४-शरीररहित जीव ५-परमाणु Jain Education International For Private & Personal Use Only wwwg३ibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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