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आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ११२
डाल कर खराव क्यों कर रही है ? इसके उत्तर में वैश्या ने कहा कि हे मुनि ? मैंने तो इस मूल्यवान कम्बल को ही खराब की है पर आप तो अमूल्य पंच महाव्रत को ही खराब कर रहे हो जरा अपनी ओर तो लक्ष्य दीजिये । बस । वैश्या के इन शब्दों को सुनकर मुनि ने विचार किया कि अहो । कहाँ धैर्यवान स्थूलभद्र मुनि कि जिस वैश्या के साथ पूर्व भोग विलासिता में रहे थे उसके साथ चारमास रहने पर भी चलायमान नहीं हुआ और कहां मेरे जैसा अल्प सत्व वाला कि वही वैश्या मुझे उपदेश देकर स्थिर कर रही है जैसे भग्न चित्त वाला रहनेमि को सतीराजमति ने स्थिर किया था इत्यादि मुनि ने वैश्या का परमोपकार मानकर आचार्य श्री के पास आया और अपना सब वितिकार कह कर अपने व्रत में जो अतिचार लगा था उसकी शुद्ध भावों से आलोचना की और कहा कि हे प्रभो ! मैंने स्थूलभद्र की बराबरी करने को मिथ्या प्रयत्न किया था पर स्थूलभद्र महाभाग्यशाली जितेद्रिय है मैं उनकी बराबरी कदापि नहीं कर सकता हूँ।
इस प्रकार मुनि के भावों को सुनकर आचार्यश्री ने उस मुनि को योग्य आलोचना एवं यथावत् प्रायश्चित देकर शुद्ध बनाया और वह मुनि तप संयम में लग्न होगया ।
मुनि स्थुलभद्र द्वारा प्रतिबोध पाने वाली कौशा वैश्या ने एक सिंहगुफावासी मुनि को ही स्थिर नहीं किया पर इस प्रकार अनेकों को स्थिर किया था एक समय का जिक्र है कि एक रथिक वैश्या के यहाँ आया था और वैश्या से उसने प्रार्थना की कितना ही द्रव्य का लालच दिया और अपनी एक ऐसी कला बताई कि नगर के बगीचा में एक आम्र का माड़ था उसके अपूर्व फल लगा हुआ था रथिक वैश्या के महल में रहा हुआ आम्र फल के बाण लगाया और दूसरा बाण पहला घाण के लगाया इस प्रकार एक एक बाण को जोड़ता हुआ वैश्या के मकान तक बाणों का तांता लगाकर उस फल को लेकर वैश्या को बतलाया । इस पर वैश्या ने अपने महल में सरसव का ढेर लगाकर उस पर एक सुई रखी सुई पर एक पुष्प रखा और उस पुष्प की एक कली पर नृत्य किया जिसको देखकर रथिक का गर्व गल गया। वैश्या ने अपने नृत्य के अन्दर एक गाथा कही कि:
न दुकरं अंबय ढुंब तोडणं, न दुकरं सिखिय नचियाण,
तं दुकरं तं च महाणुभावो, जंसोमुणीपमय वणग्गि बुझो । न तो आम्रलुब तोड़ने में अधिकाई है और न सरसव के ढेर पर नाचने में विशेषता है कारण यह कार्य तो अभ्यास का है और हर कोई कर सकता है पर अधिकताई तो उन महानुभाव मुनि स्थूलभद्र की है कि जिसने दुर्जय मोह रूपी पिशाचकों जीत लिया है कि जिसके लिये पामर प्राणी दर दर के भिखारी बन कर भटक रहे हैं और अपना अमूल्य जीवन खो रहे हैं पर उन महानुभाव स्थूलभद्र ने विषय विकार को सर्प की कचूक की भांति छोड़ दिया है संसार में एक स्थूलभद्र ही दुक्कर दुक्कर कार्य करने वाला है इत्यादि ।
वैश्या के बचनों से प्रतिबोध पाकर रथिक ने कहा कैश्या ! वह महासत्वधारी स्थूलभद्र कौन है और इस समय वह कहां रहता है क्योंकि मैं उन महापुरुष ना दर्शन करना चाहता हूँ ? वैश्या ने स्थूलभद्र मुनि का चरित्र सुनाकर जहाँ वे मुनि के रूप में भ्रमन करते थे उनका पता बताया रथिक भ्रमन करता मुनि स्थूलभद्र के पास आया और दर्शन स्पर्शन कर अपने जीवन को सफल बनाया मुनि स्थलभद्र ने उक्त रथिक को ऐसा उपदेश दिया कि उसने असार संसार को त्यागकर मुनि स्थूलभद्र के चरणकमलों में भगवती जैन दीक्षा स्वीकर कर ली और अपना कल्याण का मार्ग की आराधना में लग गया ।
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