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बि० पू० २४७ वर्ष ]
[ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अहा-हा मुनि स्थूलभद्र कि जिनका नाम मात्र श्रवण करने से पापियों का पाप नष्ट हो जाता है इस असंख्य वर्षों की अवसर्पिणी काल में यह एक ही उदाहरण मिलता है कि इस प्रकार के त्यागी वैरागी और ब्रह्मचारी एक स्थूलभद्र ही हुआ है ।
मुनि स्थूलभद्र का शेष जीवन पाठक आचार्य भद्रबाहु के जीवन में पढ़ चुके हैं कि उस समय बारह वर्षीय महान् दुष्काल पड़ा था आचार्य भद्रबाहु श्रपने ५०० शिष्यों के साथ नैपाल की ओर पधार गये थे । दुष्काल के बाद जब सुकाल हुए तो पाटलीपुत्र नगर में श्रमण संघ की एक सभा हुई और उसमें दीर्घदुकाल के कारण साधुओं आगमों को कंठस्थ नहीं रख सके अर्थात् कई आगम विस्मृत हो गये थे परन्तु उस सभा में उपस्थित साधुओं को जो जो श्रागम याद थे उनको ठीक सिलसिलेवार करने से एकादशांग तो व्यवस्थित हो गया पर बारहवां दृष्टिबादाङ्ग किसी को भी याद नहीं रहा श्रतः स्थूलभद्रादि कई साधुओं ने आचार्य भद्रबाहु के पास जाकर अध्ययन किया तो केवल एक स्थूलिभद्र ही दशपूर्व सार्थ और चार पूर्व मूल एवं चतुर्दश पूर्वघर हुए इत्यादि । आचार्य भद्रबाहु अपने अन्तिम समय मुनि स्थलिभद्र को अपने पट्ट पर प्राचार्य बना कर वीरात् १७० वर्ष में स्वर्ग सिधार गये ।
पहले हम लिख आये थे कि मंत्री शकडाल के स्थूलभद्र एवं श्रीयक दो पुत्रों के साथ सात पुत्रियें भी थी उन्होंने भी जैन दीक्षा ली थी जिनके नाम इस प्रकार थे-जक्खा य जक्खदिण्णा भूया तह चैव भूयदिण्णा य । सेणा वेणा रेणा भगिणी ओ थूलभदस्स ||
यक्षा यज्ञादिना भूता भूतदिन्ना सेणा वेणा और रेखा एवं सातों बहनों ने भी जैन दीक्षा ली थी और यथा साध्य तपसंयमादि आराधना कर स्वर्ग सुखों को प्राप्त किया था।
आचार्य लिभद्रसूरि ने शासन संचालन का कार्य अपने अधिकार में लिया तो आपने जैनधर्म प्रचार निमित्त खूब जोरदार प्रयत्न किया । आपने अनेकों को मिथ्या जाल से बचा कर जैनधर्म में दीक्षित किये और कई एकों को जैन धर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी आशातीत वृद्धि की जिसमें आपके दो शिष्य मुख्य थे, X १ श्रर्यमहागिरि जिसका एलापात्य गौत्र था, २ आर्य सुहस्ती आपका वासिष्ठ गौत्र था इन दोनों ने आचार्य स्थूलभद्र के चरण कमलों की सेवा करके दश पूर्व का ज्ञान प्राप्त कर लिया था कहा है कि:इत्यादि आचार्य स्थूलभद्रसूरि का जीवन जनकल्याण के लिए महान् उपयोगी है अन्त में आप श्रीमान् श्रपने पट्ट पर आचार्य महागिरि एवं आचार्य सुहस्ती को स्थापन कर आप परम शान्ति एवं समाधि के साथ अनशन पूर्वक विरात् २१५ वें वर्ष में स्वर्गधाम को पधारे ।
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X स्वामिना स्थूलभद्रेण, शिष्यो द्वावपि दीक्षितौ । श्रार्य महागिरिवार्य सुहस्ती चाभिधानतः || ३६ || तौ हि यक्षार्ययावाल्यादपि मात्रेव पालितौ । इत्यार्योपपदो जातौ महागिरि सुहस्ती नौ ||३७|| खङ्ग धारेव तीव्रं तावतीचार विवजितम्, परिसहेभ्यो निर्भीको पालयामास तुव्रतम् ॥ ३८ ॥ तौ स्थूलभद्रपादाब्जसेवा मधु करावभौ, साङ्गानि दर्शपूर्वाणि महाप्रज्ञावधीयतुः ॥ ३९ ॥ शान्तौ दान्तौ लब्धिमन्ता वधीतावायुष्मन्तौ वाग्मिनौदष्टभक्ति । आचार्यत्वे न्यास्य तौ स्थूलभद्रः कालं कृत्व देवं भूयं प्रपेदे ॥ ४० ॥
इतिश्री आचार्य स्थलिभद्रसूरि का पवित्र जीवन की रूप रेखा "
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