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________________ वि० पू० ५५४ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास पता मिल गया था और उन्हें उनके सिद्धान्त में रुचि भी हो गई थी। उदाहरणार्थ उन उल्लेखों में से एक यहाँ उद्धृत किया जाता है जिसमें बुद्ध कहता है कि - एक मिदाह, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पद्यते ते नखोपन समयेन संबहुला निगण्ठा इसिगि लिपस्से काल सिलायं उब्भस्थकाहान्ति आसन पटिक्खित्ता ओपक्कमिका दुक्खातिप्या कटुका वेदना वेदयन्ति अथखोहं महानाम सायण्ह समयं पटिसल्लाणा बुट्टि तो येन इसि गिलिपस्सम काय सिला येन ते निगण्ठा तेन उपसंकमिम् उपसंकमिचा ते निगण्ठे एतद् वोचम् किन्नु तुम्हे आवुसो तुम्भदका आसन पटिक्खित्ता ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदियथाति एवं बुत्ते महानामते । निगण्ठामं एतदवोचें ॥ __निगण्ठो आवुसो नायपुत्तो सव्वन्नु सव्वदस्सावी अयरिसे सं ज्ञाण दस्सन परिजाणइ चरतो चमे तिट्टतो च सुतस्स च जागरस्स च सततं समित्तं ज्ञाण दस्सनं पचुपट्टितंतिः सो एवं आह. अत्थि खोवो निगण्ठा पूव्वे पापं कम्मंकतं. तंइमायकटु काय दुक्करि कारिकाय निज्जेरथ, पनेत्य एतरहि कायेन संवुता, वाचाय संयुता, मनसा संयुता तं आयतिं पापस्स कम्मस्स अकरणं, इति पुराणानं, कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मनं अकरणा आयतिं अनवस्सवो, आयतिं अनवस्सवा, कम्मकक्खया कमकक्खयो, दुक्खयो, दुक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सव्वं दुक्ख निजिएणं भविस्सति तं चपन् अम्हाकं रुच्चति चेवखम ति च तेन च आम्हा अत्तमनातिः P. T. D. Majjhim Vol. 18 I. PP. 92-93 __ भावार्थ-महात्मा बुद्ध कहता है हे महानाम मैं एक समय राजगृह में गृद्धकूट नामक पर्वत पर विहार कर रहा था उसी समय ऋषिगिरि के पास कालशिला नामक पर्वत पर बहुत से निर्ग्रन्थ (मुनि) आसन छोड़ उपकर्म कर रहे थे और तीव्र तपस्या में प्रवृत थे। हे महानाम मैं सायंकाल के समय उन निर्ग्रन्थों के पास गया और उनको कहा, "अहो निम्रन्थ तुम आसन छोड़ उपकर्म कर क्यों ऐसी घोर तपस्या की वेदना का अनुभव कर रहे हो ? ॥"हे महानाम जब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निम्रन्थ इस प्रकार बोले अहो निम्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है वे अशेष ज्ञान और दर्शन के ज्ञाता हैं हमारे चलते ठहरते सोते जागते समसत्त अवस्थाओं में सदैव उनका ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा कि हे निम्रन्थ तुमने पूर्व जन्म में पापकर्म किया है उनकी इस घोर दुष्चर तपस्या से निर्जरा कर डालो। मन वचन और काया की संव्रती से नये पाप नहीं बंधते और तपस्या से पुराने पापों का व्यय हो जाता है । इस प्रकार नये पापों के रुक जाने से और पुराने पापों के व्यय से आयति रुक जाती है, आयति रुक जाने से कर्मों का क्षय होता है, कर्मो के क्षय से दुःख क्षय होता है दुःख क्षय से वेदना क्षय और वेदनाक्षय से सर्व दुखों की निर्जरा होती है । इस पर बुद्ध कहता है यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मन को ठीक जचता है। ऐसा ही प्रसंग मज्जिम निकाय में भी एक जगह पर आया है वहाँ भी निम्रन्थों ने बुद्ध से ज्ञातपुत्र ( महावीर ) के सर्वज्ञ होने की बात कही और उनके उपदृष्टि कर्मसिद्धान्त का कथन किया तिस पर बुद्ध ने फिर उपर्युक्त शब्दों में ही अपनी रुचि और अनुकूलता प्रगट की। Jain Educenternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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