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________________ आचार्य देवगुप्तसरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ भर आया कि आपने श्रीमालनगर की ओर विहार करने का निश्चय कर लिया। यह केवल निश्चय ही नहीं था पर आपश्री ने तो कम्मरकस कर विहार ही कर दिया और क्रमशः चल कर भीनमाल पधार गये । जब इस बात की मालुम वहाँ के राजा तथा यज्ञाध्यक्षकों को हुई तो उन लोगों में बड़ी खलबली मच गई कारण मरुधर में यही एक नगर था कि जहाँ पर वे लोग अपनी मनमानी करने में स्वतन्त्र थे उन लोगों ने सूरिजी को कष्ट पहुँचाने में कुछ भी उठा नहीं रखा पर कितना ही वायु चले इससे मरू कभी क्षोभ पाने वाला नहीं था। सूरिजी महाराज ने अपने पूर्व आचार्य स्वयंप्रभसूरि श्रीरत्नप्रभसूरि और श्री यक्षदेवसूरि के कष्टों को स्मरण कर विचार किया कि धन्य है उन महापुरुषों को कि जिन्होंने सैकड़ों आफतों को सहन कर अनेक प्रांतों में जैनधर्म का मण्डा फहरा दिया था तो यह कष्ट तो कौनसी गिनती में गिना जाता है। खैर उन पाखण्डियों ने राजसत्ता द्वारा यहां तक तजबीज करली कि नगर में गोचरी जाने पर आहार पानी तक नहीं मिला । सूरिजी ने अपने साधुओं के साथ तपस्या करना शुरु कर दिया और प्रतिदिन श्राम मैदान में व्याख्यान देना प्रारम्भ कर दिया पर पाखण्डियों ने अपनी सत्ता द्वारा जनता को व्याख्यान में जाना मना करवा दिया इस हालत में सूरिजी राज सभा में जाकर व्याख्यान देने लगे। आखिर तो वहां मनुष्य बसते थे बहुत से लोगों ने जाकर राजा को कहा कि दरबार ! बात क्या है आपको निर्णय करना चाहिये ? पर गजा तो उन पाखण्डियों के हाथ का कठपुतला बना हुआ था। राजा ने उन कहने वालों की ओर कुछ भी लक्ष नहीं दिया अतः वे अपना अपमान समझ कर राजा और यज्ञबादियों से खिलाफ हो सूरिजी के पास में आये और सूरिजी से पूछने लगे कि महात्माजी ! धर्म के विषय में क्या बात है और आप क्या कहना चाहते हो ? सूरिजी ने कहा महानुभावो ! आप जानते हो कि साधु हमेशा निस्पृही होते हैं और बिना कुछ लिये दिये केवल जनता का कल्याण के लिये धर्मोपदेश दिया करते हैं। हम लोग घूमते २ यहाँ आय गये हैं और श्रीमालनगर से हमें कुछ लेना देना भी नहीं है केवल अज्ञान के वश जनता उन्मार्ग पर चल कर कर्मबन्ध करके दुर्गति में जाने योग्य दुष्कर्म कर रही है उनको सद्मार्ग पर लगा कर सुखी बनाने के लिये ही हमारा उपदेश एवं प्रयत्न है । आप स्वयं समझ सकते हो कि इस प्रकार असंख्य प्राणियों की घेर हिंसा करना कभी धर्म पुण्य एवं स्वर्ग का कारण हो सकता है ? इसमें भी इस प्रकार के दुष्कर्म को ईश्वर कथित बतलाना यह कितना अज्ञान । कितना पाखण्ड ।। कितना अत्याचार ।। इस पर भी आप जैसे समझदार लोग हाँ में हाँ मिला कर इन निरापाध मूक प्राणियों की दुराशीष में शामिल रहते हो पर याद रखिये किसी भव में वे मूक प्राणी सबल हो जायगे और आप निर्बल होंगे तो वे अपना बदला लेने में कभी नहीं चूकेंगे इत्यादि सूरिजी ने अपनी ओजस्वी वाणी द्वारा इस प्रकार निडरता पूर्वक उपदेश दिया कि उन सुनने वालों के अज्ञान पटल दूर हो गये जैसे प्रचण्ड सूर्य के प्रकाश से बदल दर हट जाते हैं। पृच्छक लोगों ने सूरिजी के निस्पृही निडर निर्भयऔर सत्य वचन सुन कर दाँतों के तले अंगुली दबाते हुए विचार करने लगे कि महात्माजी का कहना तो सत्य है और पूर्व जमाना में एवं महाराजा जयसेन के समय भी इस यज्ञकर्म का विरोध हुआ था और आखिर राज यज्ञ करना बन्द कर अहिंसाधोपासक बन गया था अतः अपने को भी इस बात का निर्णय अवश्य करना चाहिये । बिना ही कारण लाखों जीवों की हिंसा हो रही है इत्यादि । खैर ! वे लोग सूरिजी को नमस्कार कर वहाँ से चले गये । पर सूरिजी का उपदेश से धर्म के विषय निर्णय करने के लिये उन लोगों के हृदय में उत्कण्ठा पैदा हो गई । ५१ ४०१ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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