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________________ वि० पू० ७९ वर्ष | [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास उन लोगों ने इस बात का प्रयत्न करना शुरू किया और कई लोगों को इसके लिए समझा बुझा कर अपने पक्षकार भी बना लिये इतना ही क्यों यह राजा खास प्रधान मंत्री यज्ञदत्त था उसका लक्ष भी धर्म के निर्णय की ओर आकर्षित कर लिया। मंत्री ने राजा को समझाया कि जब अपन धर्म के लिये इतना बड़ा कार्य कर रहे हैं तो इसका निर्णय तो अवश्य होना ही चाहिये इत्यादि । मंत्री पर राजा का पूर्ण विश्वास था राजा ने मंत्री का कहना मान कर एक दिन मुकर्रर किया कि राजा की ओर से धर्म के विषय में सभा कर निर्णय करवाया जाय । अतः राजा की ओर से एक आमन्त्रण सूरिजी को दिया और दूसरा यज्ञाध्यक्ष ब्राह्मणों एवं पण्डितों को भी दिया गया । जब सूरिजी ने बड़े ही हर्ष के साथ राजा के आमन्त्रण को स्वीकार कर लिया तब ब्राह्मणों ने राजा को समझाया कि नरेश । यह जैन सेवड़े नास्तिक हैं वेद एवं ईश्वर को तो यह मानते ही नहीं हैं आप क्या धर्म का निर्णय करना चाहते हो जिस धर्म को आपके पूर्वज मानते आय हैं वही धर्म सच्चा है फिर निर्णय क्या करना है क्या आपके पूर्वज नहीं समझते थे ? महाराजा भीमसेन ने बड़ेही कसौटी करके जिस धर्म को स्वीकार किया है उस पर ही आपको स्थिर रहना चाहिये इत्यादि बहुत समझाया । पर राजा ने कह दिया कि ठीक है मैं मेरे पूर्वजों का धर्म छोड़ना नहीं चाहता हूँ पर निर्णय करने में क्या हर्ज मैंने जैनाचार्य को श्रामन्त्रण भेजवा दिया है अतः आप सभा में पधार कर अपनी सच्चाई के प्रमाणों से जनता को बतला दें कि यज्ञ करना ईश्वर की आज्ञा एवं ईश्वर के वाक्य सत्य हैं । इस पर ब्राह्मणों को लाचार हो राजा का कहना मानना ही पड़ा । ठीक समय पर इधर तो श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरि अपने विद्वान शिष्यों के साथ राज सभा में पधारे उधर से ब्राह्मण समाज अपने पण्डितों को लेकर हाजर हुए। राजा, मंत्री, राजकर्मचारी एवं नागरिकों से सभा हॉल खचाखच भर गया । आचार्य देवगुप्तसूरि ने अहिंसा परमोधर्मः के विषय में जैनागमों के, महात्मा बुद्ध के और वेदान्तियों के वेद एवं पुराणों के इतने प्रमाण सभा के समक्ष रख दिया कि राजा और प्रजा सुन कर मंत्रमुग्ध बन गये । मानो उनके मनमन्दिर में श्रहिंसा महादेवी की प्राण प्रतिष्ठा तक भी हो गई इसके उत्तर में ब्राह्मणों ने इस प्रकार लच्चर दलीलें पेश की कि जिसका जनता के हृदय पटल पर कुछ भी असर न हुआ इतना ही क्या पर उन लोगों की क्रूरहिंसा की ओर सब की घृणा होने लग गई । वास्तव में यज्ञ एक निष्ठुर कर्म है किसी मांसाहारी पाखण्डियों की चलाई हुई कुप्रथा है जिससे घृणा बजाना एक स्वभाविक वात थी इस पर भी आचार्य श्री का जबर्दस्त उपदेश फिर तो कहना ही क्या था । भगवान् महावीर की ध्वनी के साथ राजा प्रजा अहिंस भगवती के परमोपासक बन गये अर्थात् जन धर्म स्वीकार कर सूरिजी के शिष्य बन गये। इसी हालत में उन यज्ञवादियों के चेहरे फीके पड़ गये और वे हताश होकर हाँ हो का हुल्लड़ मचा कर वहाँ से चले गये । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा हो रहा था जिस यज्ञ के लिये लाखों मूक् प्राणियों को एकत्र किये गये थे उन सबको छोड़वा दिये गये अतः वे अपने दुःखित हृदय को शान्त करके सूरिजी महाराज को आशीबद देते हुए निर्भयता के साथ अपने बाल बच्चों से जाकर मिले | सूरिजी महाराज कई अर्सा तक भीनमाल में स्थिरता कर उन नूतन श्रावकों को जन धर्म की क्रिया काण्ड आचार व्यवहार का अभ्यास करवाया जब सूरिजी वहाँ से बिहार करने लगे तो भक्त लोगों ने अर्ज Jain Educoternational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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