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________________ आचार्य देवगुप्तसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ की कि प्रभो । आप यह चातुर्मास यहां ही करावें कि हम लोग जैन धर्म के तत्वों को ठीक समझलें इत्यादि । सूरिजी ने लाभालाभ का विचार कर उन भक्त जनों की विनती स्वीकार करली और अपने साधुओं को वहां ठहराकर आप आसपास में बिहार कर यथा समय भीनमाल पधार कर चतुर्मास किया | सूरिजी के विराजने से बहुत ही लाभ हुआ आपके उपदेश से महावीर का मन्दिर 'बनवाया गया इत्यादि । इस प्रकार सूरिजी महाराज ने जैनधर्म का खूब प्रचार किया आपने देशाटन भी बहुत किया मरुधर लाट सौराष्ट्र कच्छ सिन्धु पंचाल अंग बंग कलिंग आवंति मेदपाट और दक्षिणदि प्रान्तों में अनेकवार बिहार किया आप श्री ने जैसे जैनतों को जैन बनाकर जैन संख्या में वृद्धि की वैसे ही अनेक मुमुक्षुओं को संसार के बन्धनों से मुक्तकर जैन धर्म की दीक्षा देकर श्रमण संघ में भी खूब ही वृद्धि की । पट्टावलीकार लिखते हैं कि आपश्री की आज्ञावृत्ति ५००० साधु साध्वियों पृथक् पृथक् प्रान्तों में विहार करते थे खूबी यह थी कि एक आचार्य इतनी विशाल समुदाय को सभाल सकते थे ! क्योंकि भगवान् पार्श्वनाथ के पट्टधरों में एक ही आचार्य होते आये हैं यही कारण है कि भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानियें एक ही आचार्य की आज्ञा में व्यवस्थित रूप में रहते थे। हां योग्य मुनियों को उपाध्याय गणि वाचक पण्डित पद दिया जाता था पर गच्छ नायक शासन करने वाले आचार्य एक ही होते थे और इसमें भी विशेषता यह थी कि देवी सच्चापिका की सम्मति से वे प्राचार्य अपने पट्टधर बनाते थे । श्राचार्य देवगुप्त सूरि जैनसमाज में बड़े ही विद्वान प्रभावशाली और धर्म प्रचारक श्राचार्य हुये हैं आप अपनी न्तिमावस्था में अपने शिष्य एवं सर्वगुण सम्पन्न मुनि धनदेव को भीनमाल नगर के शा पेथा भारमल भद्रगौत्रीय के महामहोत्सव पूर्वक श्राचार्य पद प्रतिष्ठित कर आप अनशन एवं समाधिपूर्वक भीनमाल नगर में वीदान ४५८ वें वर्ष में स्वर्गवासी हुए । पट्टावलियों और वंशावलियों में उल्लेख मिलता है कि श्राचार्य श्री देवगुप्तसूरिजी ने अपने जीवन में ऐसे ऐसे चोखे और अनोखे कार्य किये थे कि जिससे जैनशासन की अच्छी प्रभावना हुई जैसे भीनमाल नगर के प्राट नारायण के संघपतित्व में श्रीसिद्धगिरि आदि तीर्थों का विराट् संघ निकाला जिसमें ५०० साधु साध्वियों और करीब पांच लक्षयात्री गए थे इस संघ के हित नारायण ने नौलक्ष द्रव्य व्यय किया । चन्द्रवती के श्रीमाल रामा शार्दूल ने चन्द्रवाती में भगवान महावीर का बावनदेहरीवाला विशाल मन्दिर बनाया जिसकी प्रतिष्टा में करीब नौ लक्ष द्रव्य व्यय किया। कोरंटपुर के बाधनाग गौत्र के शाह हरदास काल्हरणादि ५४ नर नारियों ने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैनदरीक्षा स्वीकार की थी उनकेशपुर के दिय नाग गौत्रीय राव गोसलादि चार भाइयों ने सूरिजी के पास दीक्षा ली जिसके महोत्सव में पांच लक्ष रुपये शुभ कार्यों में व्यय किये इत्यादि यहां तो केवल संक्षिप्त में ही लिखा है पर इस प्रकार सेकड़ों ऐसे अनोखे कार्य हुए श्रतः सूरिजी के उपकार के लिये जैनसमाज सदैव के लिये आभारी है-चौदहवें पट्टपर देव हुए सरोवर यशः धारी थे जिनके गुणों का पार न पया आप बडे उपकारी थे अजैनों को जैन बना कर महाजन संघ बढ़ाया था मन्दिरों की प्रतिष्ठा करके जीवन कलस चढ़ाया था इति भगवान् पार्श्वनाथ के चौदहवें पट्टधर आचार्य देयगुप्तसूरि महा प्रभाविक हुए Jain Education International For Private & Personal Use Only ४०३ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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