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________________ वि० पू० १२ वर्ष ] ग्रा [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास चार्यश्री सिद्धसूरीश्वरजी महाराज मरुधर के एक चमकते हुए सितारे थे। जैसे भगवान् नेमिनाथ के द्वारामति और प्रभु महावीर के राजगृह था वैसे ही उपकेशगच्छाचार्यों के लिए उपकेशपुर नगर था जब जब आचार्य महाराज उपकेशपुर पधारते थे तब तब उनको कुछ न कुछ अपूर्व लाभ हो ही जाता था यही कारण था कि उपकेशगच्छ के आचार्य उपकेशपुर में विशेष पधारते थे । एक तो इन श्राचार्यों का विहार क्षेत्र प्रायः मरुधरादि प्रदेश था, दूसरा भगवान् महावीर की यात्रा, तीसरा इस नगर में सबसे प्रथम आचार्य श्री रत्नप्रभ 典 सूरीश्वरजी ने महाजनसंघ की स्थापना की थी । अतः उपकेशपुर की भूमि एक तीर्थ स्वरूप समझी जाती थी । और चतुर्थ देवी सच्चायिका उपकेशगच्छ की अधिष्ठात्री भी थी १५-- श्राचार्य श्री सिद्धसूरि [ द्वितीय ] आचार्यस्तु स सिद्ध सूरिर भवद्वंशेस्तु ते चिंचटे, नाना मन्दिर पंक्ति कारण पटुः शत्रुरंजयस्य प्रियः । वल्लम्भी नगरी गतं जनपतिं नाम्ना शिलादित्यकं, बोधत्वा व्यदधातु भक्त मिहयो शत्रु जयोद्धारकः ॥ श्राचार्य देवगुप्तसूरिजी एक समय अपने शिष्यों के परिवार सहित विहार करते हुए उपकेशपुर की र पधार रहे थे । यह समाचार मिलते ही जनता में उत्साह का एक समुद्र ही उमड़ उठा कारण आप इसी उपकेशपुर के चमकते हुए सितारे थे अतः लोगों को देश एवं नगर का गौरव था। राजा प्रजा की ओर से आपका सुन्दर स्वागत हुआ । श्राचार्य श्री का व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं तात्त्विक विषय पर होता था जिसका जनता पर काफी प्रभाव पड़ता था । उपकेशपुर में चिंचट गौत्रीय शाह रूपणसिंह धनकुबेर के नाम से मशहूर था । आपकी धर्म परायण गृहदेवी का नाम जाल्हा देवी था। आपके यों तो कई संतान थीं पर एक भोपाल नाम का पुत्र बड़ा ही होनहार एवं कुल में प्रदीप समान था । रूपणसिंह हमेशा सकुटुम्ब सूरिजी का व्याख्यान सुन कर सेवा भक्ति उपासना किया करते थे । उन लोगों के संस्कार ही ऐसे थे कि वे धर्म को ही सार समझते थे । एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में संसार की असारता का वर्णन करते हुए मनुष्य भव की सफलता का एक ऐसा उपाय बतलाया कि संसार में क्षण मात्र के सुख और बहुतकाल दुःखा अर्थात् पौद् गलिक सुख क्षण मात्र के हैं और इसमें रत हो कर धर्माराधन नहीं करते हैं वे जीव दीर्घ काल तक नारक के दुखों का अनुभव करते हैं । श्रपश्री ने जब नरक के कुम्भीपाक के दुःखों का वर्णन किया तो श्रोता जनों के रोमांच खड़े हो आये और सहसा उनका दिल संसार से विरक्त हो गया । ४०४ Jain Educonternational शाह रूप सिंह का लघु पुत्र जो भोपाल अभी किशोर वय में एवं खेल कूद रमत गमत किया करता था उसके कोमल हृदय पर व्याख्यान का ऐसा प्रभाव पड़ा जैसा ताप का प्रचाण्डप्रभाव मोम पर पड़ता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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