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वि० पू० ७९ वर्ष ।
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
आचार्य देवगुप्तसूरि महा प्रतिभाशाली एवं धर्म प्रचार आचार्य हुए । आप सूरि पद प्राप्त करने के पश्चात् आपने विशाल समुदाय का संचालन बड़ी कुशलता से किया और श्राप स्वयं अपने शिष्यों के साथ प्रत्येक प्रान्त में भ्रमण कर जैनधर्म का काफी प्रचार किया आप श्रीमान् एक बार दक्षिण की ओर विहार कर वहाँ की जनता को जैनधर्म का इस प्रक र उपदेश दिया कि हजारों लोग मांस मदिरादि र्दुव्यसनों को त्याग कर भगवान् महावीर के अहिंसा के झंडे की शरण ले अपना कल्याण किया। आचार्य कक्कसूरि के समय जो मुनि दक्षिण की ओर विहार किया था उन्होंने भी वहाँ जैनधर्म का खूब प्रचार किया और वे भी आवार्य देवगुप्तसूरि दक्षिण में पधारे है सुन कर सूरिजी को वन्दन करने को आये उन्हों के धर्मप्रचार को देख सूरिजी ने अपनी ओर से प्रसन्नता प्रकट की और योग्य साधुओं को पदवीयों से भूषित कर उनका योग्य सत्कार किया सूरिजी महाराष्ट्रीय एवं तिलंगादिक प्रान्तों में भ्रमण कर कई राजा महाराजाओं को जैनधर्म के उपासक बनाये । सूरिजी यह भी जानते थे कि जिस प्रान्त का उद्धार करना उसी प्रान्त के जन्मे हुए साधुओं पर निर्भर रहता है अतः सूरिजी ने जिस-जिस प्रतों के भावुकों को दीक्षा देते थे उन्हीं को उसी-उसी प्रान्तों में विहार की आज्ञा दे देते थे कि वे वहाँ की जनता का उद्धार आसानी से कर सकें।
सूरिजी महाराज दक्षिण प्रान्त में भ्रमण करने के पश्चात आवंति प्रदेश में पधारे वहाँ की जनता को धर्मोपदेश सुना कर जैनधर्म में स्थिर करते हुए मेदपाट की ओर पधारे आप श्री का स्थान स्थान पर सुन्दर स्वागत एवं सत्कार होता था और आप की अमृतमय देशन सुन अपना कल्याण की भावना से वे लोग धर्माराधना में विशेष प्रयत्नशील बन जाते थे।
तत्पश्चात् आप पुनः मरुधर में पदार्पण किया जननी जन्मभूमि की एवं उपकेशपुर स्थित भगवान् महावीर की यात्रा की और वहाँ कि धर्म पीपासु जनता को धर्मोपदेश सुनाया आप श्रीमानों के पधारने से मरुधरवासियों में धर्मोत्साह खूब बढ़ गया था कई भावुकों ने आपश्री के चरणकमलों में भगवती दीक्षा ग्रहण की और कई मन्दिर मूर्तियों की आपश्रीने प्रतिष्ठा भी करवाई । कहने की आवश्यकता नहीं है कि आपश्रीमानों तथा आपश्री के पूर्वजों ने मरुधर के बड़े-बड़े नगर ही नहीं पर छोटे २ गावड़ों में भ्रमण करने से जैनधर्म का काफी प्रचार हो गया था प्रत्येकग्रामों में जैनमन्दिर एवं जैनपाठशालों स्थापित होगये थे पर एक श्रीमालनगर ही ऐसा रह गया था कि वहाँ अभी वाममार्गियों की ही विशेष प्रबाल्यता थी आचार्य स्वयंप्रभसूरि ने श्रीमालनगर के वासी राजा जयसेनारि ९०:०० घरवालों को जैनधर्म की दीक्षा दी थी पर बाद में धर्मद्वेष के कारण राजकुँवर चन्द्र सेन ने चन्द्रावतीनगरी बासा कर अपनी राजधानी कायम की थी और श्रीमालनगर का राजा भीमसेन ने धर्मान्धता के कारण जैनों को इतना कष्ट दिया कि श्रीमाल से सब के सब नगरवासी जैन श्रीमाल का त्याग कर नूतनबसी चन्द्रावतीनगरी में जा बसे । अतः श्रीमाल नगर के राजा प्रजादि सब लोग वाममार्गियों के ही उपासक रहे । बाद राजा भीमसेन का पुत्र उत्पलदेव ने उपकेश नगर बसा कर अपना नया राज स्थापन किया आचार्य रत्नप्रभसूरि के उपदेश से वह भी जैनधर्मोपासक बन गये पर श्रीमालनगर तो वाममगियों का केन्द्रही बना रहा। फिर भी उन लोगों के तकदीर ही ऐसे थे कि किसी जैनाचार्यों ने श्रीमाल नगर में जाने का साहस नहीं किया।
__आचार्य देवगुप्तसूरि ने सुना कि भीनामाल नगर में एक वृहद यज्ञ का अयोजन हो रहा है और लाखों प्राणियों की बली भी दी जायगी इत्यादि । सूरिजी का हृदय उन प्राणियों की करुणा से इस कदर
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