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________________ आचार्य देवगुप्तम्ररि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ३२१ Annnnnny माता-पहिले आप तो अपने बेटे के साथ हो जाइये फिर मुझे पूछिये । पिता-लो मैं तो अपने बेटे के साथ हूँ अब तुम तो मेरे साथ रहोगी न ? माता-यदि आप अपने पुत्र के साथ हैं तो मैं आपके साथ होने में कब पिच्छे रहूँगी।। क्षयोपसम इसका ही नाम है । बात ही बात में तीनों जने घर छोड़ने को तैयार हो गये । पाठकों को इस बात का आश्चर्य होगा पर जिन जीवों का कल्याण होने का समय आता है तब साधारण कारण भी सफल हो जाता है । यहाँ तो माता पिता और पुत्र के वार्तालाप भी हुआ है पर ऐसे भी जीव होते हैं कि केवल एक एक वस्तु को देख कर भी वैरागी बन जाते है । देखिये जम्बु कुँवरादि का उदाहरण । जब तीनों घर छोड़ने को तैयार हो गये और इस बात का पता सूरिजी को मिला तो उन्होंने सोचा कि मेरी धारणा ठीक ही निकली । तया नगर में खबर होने पर सब नागरिकों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और कई लोग उस निमित कारण को पाकर उनका अनुकरण करने को भी तैयार हो गये। उपके रापुर के घर घर में यही बातें हो रही थी कि धन्य है देवसिंह को कि अपने १६ वर्ष की किशोर वय में संसार त्याग कर दीक्षा लेने को तैयार हुआ है इतना ही क्यों पर उसने तो अपने माता एवं पिता को भी दीक्षा के लिये तैयार कर दिये हैं विशेष धन्यवाद है श्राचार्य कक्कसूरिजी महाराज को कि आपका उपदेश हो ऐसा मधुर एवं प्रभावशाली है । जिससे अनेक भव्यात्माओं का कल्याण होता है । देवसिंह के इस वैराग्यमय कार्य को देख कर ३५ पुरुष ओर ६० महिलाएँ दीक्षा लेने को तैयार हो गये थे । राव करत्था ने अपना सर्वाधिकार अपने ज्येष्ठ पुत्र देपाल को सुपुर्द कर दिया और देपालादि भाइयों ने अपने माता पिता एवं लघु भ्राता की दीक्षा के निमित्त जिनमन्दिरों में अष्टान्हिकादि अनेक प्रकार से महोत्सव-पूजा प्रभावना स्वामिवात्सल्यादि किये तथा वहाँ के राजा जैत्रसिंह आदि श्रीसंघ ने भी इस पवित्र कार्य में सहयोग देकर जिन शासन की उन्नति एवं प्रभावना में वृद्धि की । आचार्यश्री ने देवसिंह आदि मुमुक्षुत्रों को बड़े ही समारोह के साथ दीक्षा दे दी। अहा-हा उस समय उन भव्य जीवों के कैसे लघुकर्म थे कि थोड़ा सा उपदेश से ही वे अपने आत्मकल्याण की ओर अग्रेश्वर बन जाते थे और सुख सम्पति को तृण सदृश समझ कर त्याग कर देते थे और एक को देख कर अनेकात्माएँ बिना ही उपदेश उनका अनुकरण करने को तैयार हो जाते थे । अतः देवसिंह का प्रत्येक्ष उदाहरण देख लीजिये। मुनि देवसिंह पर सूरिजी महाराज की पहले से ही पूर्ण कृपा थी और उन के शुभलक्षणों से वे जान भी गये थे कि भविष्य में यह देवसिंह बड़ा ही प्रभावशाली होगा । देवसिंह की बुद्धि तो पहले ही कुशाग्र थी फिर सूरिजी की कृपा तब तो कहना ही क्या था मुनि देवसिंह सूरिजी का विनय भक्ति करता हुश्रा स्वल्प समय में सामायिक साहित्य का पूर्ण ज्ञान हासिल कर लिया और धुंरधर विद्वान बन गया तर्क युक्ति और व्याख्यान शैली तो आप की तुली हुई थी यही कारण है कि आप की बाणी रूप सुधापान करने को अनेक राजा महाराज भी हमेशा लालायत रहते थे बादी मानी पाखण्डी तो श्राप का नाम सुन ने मात्र से घबराते थे एवं मुंह छिपा कर दूर दूर भागते रहते थे इत्यादि मुनि देवसिंह के धैर्य गांभिर्य और शान्त प्रकृति आदि गुणों के ही कारण आचार्य कक्कसूरिजी ने पुनीत तीर्थ श्री सिद्धगिरि पर चिंचट गोत्रिय शाहनाथ समर्थ के महामहोत्सव के साथ देवसिंह को अपने पद पर प्राचार्य बना कर आप का नाम देवगुप्त सूरि रख दिया। ३९९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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