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आचार्य रत्नप्रभसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
लावा परमत के साहित्य का भी आपने ठीक अध्ययन कर लिया था । शास्त्रार्थ और वादविवाद में आपका तर्क एवं युक्तिवाद इतना प्रबल था कि प्रतिवादी आपके सामने सदैव नत मस्तक ही रहते थे । जब सुनि गुणचन्द्र की २४ वर्ष की आयु अर्थात् ८ वर्ष की दीक्षा पर्याय हुई तो आचार्य सिद्धसूरि ने अपना
पुष्यनजदीक जाकर तथा मुनगुराचन्द्र को सर्वगुण सम्पन्न देख कर सूरिमंत्र की आराधना पूर्वक उपकेश पुर के श्रीसंघ के महोत्सव के साथ चतुर्विध श्रीसंघ के समक्ष देवी सच्चायिका की सम्मतिपूर्वक मुनिगुणचन्द्र को सूपद से विभूषित कर आपका नाम आचार्य रत्नप्रभसूरि रख दिया जो इस गच्छ में क्रमशः रिनामावली चली आरही थी । एक समय आप श्री ने प्रथम रत्नप्रभसूरि का जीवन पढ़ा तो आपकी आत्मा पर काफी प्रभाव पड़ा और आपने अपना ध्येय शासन उन्नति का बना लिया ।
श्राचार्य रत्नप्रभसूरि महान प्रतिभाशाली विद्वान और शासन की प्रभावना करने वाले थे न जाने इस नाम में ही ऐसा चमत्कार रहा हुआ था कि गच्छनायक होते ही आपका सितारा अधिक से अधिक चमकने लग जाता था । सूरिजी ने मरुधर के प्रत्येक ग्रामों में विहार कर सर्वत्र जनता को धर्मोपदेशरूपी सुधारस का पान कराया । उपकेशपुर, विजयपट्टन, माडब्यपुर, नागपुर, मेदनीपुर, शंखपुर, कुर्चपुरा, हर्षपुरा, मुग्धपुर, खटकूपपुर, वैराटपुर, दाबावती, पालिकापुरी, कोरंटपुर, भिन्नमाल, शिवगढ़, सत्यपुरी. जावलीपुर, चन्द्रावती, शिवपुरी, और पद्मावती वगैरह छोटे बड़े ग्रामों में भ्रमण किया इस विहार के अन्दर कई मुमुक्षुओं को दीक्षा दी, कई मन्दिरों की प्रतिष्ठा करवाई। कई जीर्ण मन्दिरों का उद्धार करवाया इत्यादि धर्म प्रचार बढ़ाते हुये क्रमश: आपने पद्मावती नगरी में चतुर्मास करके जनता को खूब उपदेश दिया एक समय आपने तीर्थाधिराज श्रीशत्रु जय के विषय खूब प्रभावशाली व्याख्यान देते हुये फरमाया कि पूर्व जमाने में कई राजा महाराजा एवं सेठ साहूकारों ने इस तीर्थ की यात्रा निमित्त बड़े २ संघ निकाल कर एवं संघपति बनकर अनेक साधर्मी भाइयों को यात्रा करवा कर अनन्त सुन्योपार्जन किये थे । संघपति पद कोई साधारण पद नहीं पर इस पद को तीर्थङ्करदेव ने भी नमस्कार किया है इत्यादि । आपके उपदेश का प्रभाव जनता पर इस कदर हुआ कि सब की भावना तीर्थयात्रा की ओर झुक गई । उसी सभा में प्राग्ववंशीय मन्त्री राणक भी था उसने खड़े होकर अर्ज की कि हे पूज्यवर । मेरी इच्छा है कि मैं पुनीत तीर्थ श्रीशत्रु जय गिरनारादि तीर्थों की यात्रा निमित्त संघ निकालूं अतः मुझे श्रीसंघ आज्ञा प्रदान करावे सूरिजी ने कहा राणक तू बड़ा ही भाग्यशाली है । ज्ञानियों ने फरमाया है कि मनुष्य का आयुष्य अस्थिर है, लक्ष्मी का स्वभाव चंचल है। इसमें जो कुछ सुकृत कार्य बन जाय वही अच्छा है इत्यादि । उस सभा में और भी कई भाइयों की भावना संघ निकालने की थी पर सब से पहिले मंत्री राणा ने अर्ज की श्रतः श्रीसंघ की तरफ से मंत्री राणा को हो आदेश मिला ।
मन्त्री राणा ने अपना महोभाग्य समझकर सूरिजी को वन्दन कर अपने मकान पर आया । मन्त्री राणा के पाण्डवों के सदृश्य पांच पुत्र थे उनको बुलाकर संघ निकालने के लिये पूछा तो उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ कहा कि पिताजी । आप के उपार्जन किया हुआ द्रव्यपर हमारा कुछ भी अधिकार नही है और आप अपना द्रव्य को इस प्रकार सुकृत में लगावें इस में हम लोगोंको बड़ी भारी खुशी है और संघ के लिये सामग्री एकत्र करने के लिये आप जो हुकुम फरमायें उसे करने के लिये हम सब भाई कटिवद्ध तैयार है। अतः मंत्री राणा ने खुश होकर पुत्रों को अलग-अलग काम का जिम्मा दे दिया अतः वे अपने काम को सफल
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[ श्री मंत्री राणा का संघ
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