________________
वि० सं० ११५ वर्ष ]
[भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास
अजं कलं परं पुरारी, पुरिस चिंतंति अत्थी संपति । अंजलि गई भो तुअं,गल्लतमायुः न पिच्छति।।
अरे भव्य ! तू आज कल परसों भौर वर्षान्तर में धर्म करने का विचार करता है पर अंजली के जल की भांति तेरा आयु क्षीण होता जारहा है इसका भी कभी विचार किया है तीर्थक्कर देवों ने सो स्पष्ट पानि खुले शब्दों में फरमाया है कि । मनुष्य का आयुष्य अस्थिर है जैसे कि
दुमपत्तए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए । एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमाए ॥१॥ कुसगो जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्टइ लंवमाणए ।।
एवं मणुयाण जीवियं, समयं गोयम ! भा पमाए ॥२॥ अर्थात आयुष्य का क्षण भर का भी विश्वास नहीं है अतः धर्म करने में क्षणमात्र की भी देर न करनी चाहिये न जाने क्षणान्तर क्या होता है कहा है कि-"धम्मस्यत्वरता गतिः" इत्यादि
सूरिजी का वैराग्यमय उपदेश सुन कर जैसे कोई सिंह निद्रा से जागकर सावधान हो जाता है वैसे ही राजसी सावधान हो गया और अपने माता पिता के पास जाकर दीक्षा की अनुमति मांगी। पर माता पिता और एक मास की परणी नववधू वगैरह कब चाहते थे कि राजसी इस १६ वर्ष की युवक वय में हमको छोड़ कर दीक्षा लेले परन्तु राजसी का हृदय तो बाल्यावस्था से ही दीक्षा के रंग से रंगा हुआ था वह इस संसार रूप कारागृह में कब रहने वाला था। राजसी ने अपनी स्त्री को इस कदर युक्ति से समझाई कि वह दीक्षा लेने के लिये तैयार हो गई इस हालत में राजसी के माता पिता संसार में कब रहने वाले थे अतः उन्होंने राजसी को पूछा कि घर में करोड़ों रुपये की लक्ष्मी है उस का क्या करना चाहिये ? राजसी ने कहा पिताजी ! शास्त्रों में सातक्षेत्र कहे है उसमें लगाकर पुन्योपार्जन कीजिये दूसरा तो इसका हो ही क्या सकता है। शाह पेथा ने एक एक कोटी द्रव्य तो अपनी सातों पुत्रियों को दे दिया कुछ दीक्षा के महोत्सव के लिए रख लिया। शेष द्रव्य सातों क्षेत्र में जहां जैसी आवश्यकता थी लगा दिया इस प्रकार सूरिजी का उपदेश और राजसी का त्याग वैराग्य देख और भी २३ नरनारी दीक्षा लेने को तैयार हो गये । इस सुअवसर पर जिन मंदिरों में अठाई महोत्सव पूजा प्रभावना म्वामिबात्सल्य और साधर्मी भाइयों को पहरामणी याचकों को दान दीन दुखियों का उद्धार वगैरह कार्यों में पांच करोड़ द्रव्य व्यय किया । तदनन्तर शुभमुहूर्त में राजसी आदि २७ नरनारियों ने सूरिजी के शुभ हस्तविन्द से भगवती जैनदीक्षा ग्रहण करली । शुभ कार्य से जैनधर्म को खूब ही प्रभावना हुई और घर-घर में जैनधर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा होने लगी। सूरिजी ने राजसी का नाम 'गुणचन्द्र' रख दिया जो “अथानाम तथा गुण" वाली कहावत को चरितार्थ करता था। कारण राजसी में सब गुण चन्द्र के समान निर्मल थे।
मुनि गुणचन्द्र सूरिजो के विनयवान शिष्यों में एक था । गुरुकुल वास में रह कर सूरिजी की आज्ञा का भली भांति आराधन किया करता था । मुनिजी ने पूर्वभव में सरस्वती देवी की अच्छी आराधना की थी कि इस भव में भी वह वरदाई हो गई अल्प समय में वर्तमान जैनागमों का अध्ययन कर लिया। इतना ही
क्यों पर व्याकरण, न्याय, तर्क, काव्य अंलकार छन्द वगैरह के भी धुरंधर विद्वान हो गये तथा स्वमत के hain E सरिजी का उपदेश-]
४७१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org