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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
बनाने में लग गये। मंत्री राणा उस समय वृद्धावस्था में था राज का काम पुत्र को सोंप कर आप निर्वृति से धर्माराधना करता था तथापि मन्त्री चलकर राजा के पास गया और राजा ने मंत्रेश्वर की बहुत प्रशंसा की
और कहा कि राणा तू बड़ा ही भाग्यशाली है । इस पुन्य कार्य को करके तूने अपने जीवन को सफल बना लिया है । अब इस संघ के लिये जो कुछ सामान की आवश्यकता हो वह बिना संकोच राज से लेजाना ताकि इतना लाभ तो मुझे भी मिले । मन्त्री ने कहा राजन् ! यह सब गुरुदेव की पूर्ण कृपा का ही फल है
और आपकी मेहरबानी एवं उदारता के लिये मैं आपका उपकार समझता हूँ और आप श्रीमानों की कृपा से ही मेरा प्रारंभ किया कार्य सफल होगा पर एक खास मेरी प्रार्थना है कि हुजूर खुद इस संघ में पधारें क्योंकि धर्म सबका एक है देव सब का एक है और तीर्थ सबका एक है । पूर्व जमाने में बड़े-बड़े नरेशों ने संघ सहित इस महान तीर्थ की यात्रा की है । अतः मेरी प्रार्थना पर मंजूरी हुक्म फरमाना चाहिये । इस पर राजा ने कहा राणा मैं सब धर्मों को सक ही समझता हूँ फिर भी जैनधर्म पर मेरा अधिक अनुराग है । श्रापके आचार्य एवं साधु बड़े ही त्यागी वैरागी हैं। इनके उपदेश जनकल्याण के लिये होता हैं। अतः मैं धर्म में किसी कार का भेद कहीं सामता हूँ जिसमें भी तीर्थों के लिये तो भेद हो ही नहीं सकता है। जैसे हमारे गंगातीर्थ है वैसे आपके शत्रुजयतीर्थ है पर कहा है कि 'राजेश्वरी नरकेश्वरी'। मेरे जैसों की तकदीर में ऐसे तीर्थ की यात्रा कहाँ लिखी है । हमतों चौरासी के कीड़े चौरासी में ही भ्रमण करेंगे यथार्थ संघ में चलने के लिये अभी तो मैं कुछ नहीं कहता हूँ समय पर बन सका तो मैं विचार अवश्य करूंगा इत्यादि ।
मन्त्री ने कहा राजन् ! धर्म तो खास राजाओं का ही है और 'यथा राजा तथा प्रजा' । राजा के पीछे ही प्रजा में धर्म का उत्साह बढ़ता है। अगर आप इस संघ में पधारेंगे तो जनता में कितना उत्साह बढ़ जायगा जिसकी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है परन्तु इसका लाभ तो आपको ही मिलेगा। जब आप समझते हो कि 'राजेश्वरी सो नरकेश्वरी' तब तो इस नर्क के द्वार बन्द करने के लिये आपको इस धर्म कार्य में अधिक उत्साह से भाग लेना चाहिये । आप खुद ही समझदार हैं मैं आपको अधिक क्या कहूँ। यदि आप मेरी प्रार्थना को स्वीकार करलें तो मेरा उत्साह और भी बढ़ जायगा । इसको भी आप सोच लीजिये।
राजा ने कहा ठीक है राणा में इस बात का विचार अवश्य करूंगा।
मंत्री ने कहा विचार करना तो पराधीनों के लिये है आप स्वाधीन हैं। मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि आप मेरी प्रार्थना को अवश्य स्वीकार करेंगे ।
राजा-जब तुझे विश्वास है तो अधिक कहने की जरूरत ही क्या है ।
इत्यादि वार्तालाप हुआ। बाद मंत्री राजा को प्रणाम कर अपने स्थान आगया तथा समय पाकर सूरिजी से भी निवेदन कर दिया कि कभी राजा व्याख्यान में आवे तो आप भी इस बात का उपदेश करें क्योंकि राजा संघ के साथ चलने से जनता पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा।
मंत्रीश्वर के कुशलता पूर्वक कार्य करने वाले पांच पुत्र थे। पास में पुष्कल द्रव्य था और राजा की पूरी मदद फिर तो कहना ही क्या था मंत्री ने अलग-अलग काम सब के सुपुर्द कर दिया और वे लोग संघ के लिए सामग्री जुटाने में लग गये।
मंत्री राणा के पुत्रों ने जहां-जहां साधु साध्वियां विराजमान थे वहां-वहां अपने योग्य मनुष्यों को विनती के लिये भेज दिये तथा श्रीसंघ के लिये प्रत्येक ग्राम नगर में आमंत्रण पत्र भिजवा दिये। उस मंत्री का राजा को उपदेश ।
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