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________________ वि० सं० ११५ वर्ष ] [ भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास समय जनता की धर्मप्रति कैसी भावना थी वह इस शुभ कार्य से ज्ञात हो जायगी कि आमंत्रण पत्र से हजारों नहीं पर लाखों भावुक जनों ने पद्मावती नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। शुभमुहूर्त मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी के दिन मंत्री राणा के संघपतित्व में और आचार्य सिद्धसूरि के नायकत्व में संघ ने प्रस्थान कर दिया। संघ का ठाठ देख राजा जैत्रसिंह के मन में इतना उत्साह बढ़ गया कि वह अपनी रानी को लेकर संघ में शामिल हो गया। फिर तो कहना ही क्या था तीर्थ पर पहुंचे वहाँ तक तो इस संघ में ५००० साधु साध्वियां और पांच लक्ष मनुष्यों की संख्या होगई थी। छ० री० पाली संघ में कितना अानन्द आता है इस बात का अनुभव तो उन्हीं लोगों को होता है कि जो यात्रा को यात्रा समझ कर निवृत्ति भाव से दो-दो चार-चार मास साधुओं की भांति भ्रमण कर आनन्द लूटते हैं क्योंकि यात्रा में इन्द्रियों का दमन, कषायों पर विजय, आरम्भ से निति, ब्रह्मचर्या का पालना, गुरु सेवा, प्रभु पूजा, स्वर्मियों का समागम, और ज्ञान ध्यान का करना इत्यादि अनेक लाभ मिलता है। यही कारण है कि तीर्थ यात्रा धर्म का एक खास अंग समझा गया है । उस जमाने में संघ बिना यात्रा होनी कठिन थी और ऐसे संघ कभी-कभी भाग्यशाली ही निकालते थे । अतः जनता में उत्साह की तरंगे उछल रही थीं। आज कल तो यात्रा नाम मात्र की रह गई है। पूर्वोक्त गुण खोजने पर भी शायद ही मिलते होंगे ? यद्यपि सब लोग एक से नहीं । होते हैं पर जो पूर्व जमाना में लोगों की धर्म पर श्रद्धा और आत्म-कल्याण की रुची थी वह बहुत कम रह गई है इसमें कर्मों की बहुल्यता के अलावा क्या हो सकता है फिर भी यह रास्ता इतना उत्तम है कि कभी-कभी आत्म विकास की लहर आय ही जाति है । ___उस जमाने के अन्दर जैनों के घरों में ऐसा पैसा ही नहीं आता था कि कुक्षेत्र में लगा सके । यात्रार्थ जो पैसे खर्च किये जाते थे वे साधर्मी भाइयों के तथा देश भाइयों के ही काम में आते थे। श्राज हजारों लाखों रुपये रेल्वे को दिये जाते हैं वे विदेशों में तो जाते ही हैं पर उसका वहां भी दुरुपयोग ही होता है । जो भाव और आनन्द गुरु महाराज के साथ छरी पाली यात्रा में आता है वह रेलवे से यात्रा करने में नहीं आता है । भला पहिले जमाने में जीवन भर में एक ही यात्रा करते होंगे पर वे एक बार की यात्रा में इतने पाक एवं पवित्र बन जाते थे कि किये हुए कर्मो का प्रक्षालन कर फिर पाप नहीं करते थे। पर आज सालोसाल यात्रा करने वाले न तो वहां जाकर पाप धोते हैं और न वापिस आकर पाप से डरते हैं । आज की यात्रा को तो एक व्यसन एवं मुसाफिरी ही कही जाती है । हाँ सब सरीखे नहीं होते हैं पर मुख्यता में आज कल का हाल ऐसा ही है । पर कई लोग आत्म भावना वाले भी होते हैं । संघ क्रमशः गांव नगर एवं तीर्थो के दर्शन पूजन ध्वज महोत्सव जीर्णोद्धार एवं दीन दुखियों का उद्धार करता जा रहा था। रास्ता में अनेक राजा महाराजा एवं श्रीसंघ की ओर से अच्छा स्वागत हो रहा था । क्रमशः श्रीसिद्धगिरि के दूर से दर्शन करते ही भावुकों के हृदय कमल विकासायमान होगये । चतुर्विध श्रीसंघ ने मिल द्रव्य भाव से तीर्थ वन्दन पूजन किया। तत्पश्चात् तीर्थ पर जाकर भगवान आदीश्वर के दर्शन स्पर्शन कर चिरकाल के मनोरथों को सफल किया। इस तीर्थ को सुन कर आस पास के छोटे बड़े अनेक संघ वहां आये और पाठ दिन तक अष्टन्हिका महोत्सव पूजा प्रभावना स्वाभिवात्सल्यादि विविध प्रकार से भक्ति की और भी करने योग्य सव विधान किया तत्पश्चात् गिरनारादि क्षेत्रों की स्पर्शना की। सूरिजी महाराज ने अपने पाई साधुओं के साथ लाट सौराष्ट्र प्रदेश में विहार करने के कारण वहां ही रह गये और For Private & Personal use only [ श्री संघ श जय तीर्थ पर .org ५७४ Jain Education international For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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