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आचार्य रत्नप्रभसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ५१५
दूसरे साधु एवं संघ लौट कर पुनः पद्मावती आये। मंत्रीराणा ने संघ को स्वामिवात्सल्य के साथ एक एक सोना मोहर और पांच पांच सेर लड्डू की प्रभावना दी और संघ के चरणों की रज अपने सिर पर लगा कर अपने जीवन को सफल बनाया । धन्य है इस प्रकार शासन की प्रभावना करने वाले नररत्नों को।
यह तो एक संघ का हाल यहां लिखा है । पर इस प्रकार तो अनेक प्रान्तों एवं नगरों से कई आचार्य एवं मुनिवरों के उपदेश से छोटे बड़े कई संघ निकाला करते थे। कारण उस समय एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में एक दो मनुष्यों से आना जाना मुश्किल था । लूट पाट का भय रहता था। तथा यात्रार्थ अथवा व्यापारार्थ आना जाना होता तो इसी प्रकार हजारों लाखों आदमियों के संग से ही जाना थाना बनता था । दूसरे उस समय लोगों में धर्मभावना भी बहुत थी तीसरे वह लोग थे भी हलुकर्मी चतुर्थ उनके व्यापारादि सब कार्य न्याय एवं नीति पूर्वक थे कि लक्ष्मी तो उनके घर में दासी होकर रहती थी। उनका जीवन सादा एवं सरल था कि वे दूसरे कामों की अपेक्षा धर्मकार्य में द्रव्य व्यय करना अधिक पसन्द करते थे। इन शुभ अध्यवसायों के कारण वे संसार में खूब फले फूले रहते थे और धर्मकार्यों में सदैव अप्रभाग लेते थे ।
___ अस्तु । आचार्य रत्नप्रभसूरि ने लाट सौराष्ट्र में विहार कर सर्वत्र जैन धर्म की जागृति एवं प्रभा. वना करते हुये कच्छ प्रदेश में पदार्पण किया । सूरिजी के पधारने से सर्वत्र चहल-पहल मच गई। उपकेशवंशियों की संख्या सर्वत्र प्रसरित थी, वे लोग रत्नप्रभसूरि का नाम सुन कर प्रथम रत्नप्रभसूरि की स्मृति कर रहे थे। सूरिजी महाराज के उपदेश से कच्छ ठीक जागृत होकर अपने आत्म-कल्याण में लग गया । बाद वहां से आपने सिन्ध को पवित्र बनाया । सिन्ध में बहुत से साधु भी विहार करते थे। जब सूरिजी महाराज देवपुर, आलोट, डबरेल, खखोटी, नरवर होते हुये शिवनगर में पधारे। वहां का राजा कुंतलादि श्रीसंघ ने सूरिजी का खूब ही समारोह के साथ स्वागत किया । सूरिजी के पधारने से जनता में एक प्रकार की नयी चेतनता प्रगट हुई और उत्साह बढ़ गया।
एक दिन सूरिजी व्याख्यान दे रहे थे, किसी अन्य धर्मी ने प्रश्न किया कि सूरिजी महाराज आप निश्चय को मानते हो या व्यवहार को ?
सूरिजी ने उत्तर दिया कि हम निश्चय और व्यवहार दोनों को युगपात समय मानते हैं क्योंकि व्यवहार बिना निश्चय प्रगट नहीं होता है. तब निश्चय बिना व्यवहार चल नहीं सकता है। अतः निश्चय और व्यवहार दोनों को मानना ही सम्यक् मार्ग है।
पृच्छक-पूज्य ! यह तो मिश्र मार्ग है। मैंने तो सुना है कि एक मार्ग पर निश्चय किये बिना कल्याण नहीं होता है तो फिर आप जैसे विद्वान मिश्र मार्ग की शरण क्यों लेते हो ?
सूरिजी-एकान्तवाद से कल्याण नहीं, पर कल्याण स्याद्वाद से होता है । अर्थात अकेले निश्चय से कुछ नहीं होता है तब अकेले व्यवहार से भी कार्य की सिद्धि नहीं है । हां, निश्चय के अनुसार व्यवहार चलता है पर व्यवहार को छोड़ देने पर अकेला निश्चय भी कुछ नहीं कर सकता है । निश्चय में तो आपके व्याख्यान सुनना था, पर यहां आने का व्यवहार एवं उद्यम किया तब व्याख्यान सुन सके हो ।
पृच्छक्-महाराज ! मैं एक निश्चय को ही मानने वाला हूँ। चाहे व्यवहार न करे, पर निश्चय में जो होने वाला होता है वही होकर रहता है । जैसे
एक मनुष्य निश्चयवादी था और जंगल गया था। वहाँ भूमि खोदते उसे खजाना मिना, पर उसने lain Ed निश्चय और व्यवहार ]
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