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( ९ ) " महाराज ! श्रहिंयां एक निर्गठ चारे दिशाना नियमथी सुरक्षित छे. ( चातुयामसंवर संवुतो ) हे महाराज, केवी रीते निगंठ चारे दिशाना संवरथी रक्षित छे ? महाराज श्री निर्गठ सघलुं (थंडु ) पाणी थी. सर्व दुष्ट कर्म करता नथी. ने सबला दुष्कर्मोना विरमन बडे ते सर्व पापोथी मुक्त छे. अने सर्व प्रकारना दुष्कर्मोथी सघलां पापकर्मोथी निवृत्ति अनुभवे छे. आ प्रमाणे हे महाराज ! निगंठ चारे दिशान संवरथी संवृत छे, अने महाराज ! आ प्रमाणे संवृत होवाथी ते निगंठ नातपुत्तनो आत्मा मोटी योग्यतावालो छे. संयत अने सुस्थित छे.” ( दीर्घनिकाय - सामजफलसुत्तकी सुमंगलविलाखीनी टीकाका अनुवाद, हरमन जेकोबीकी जैनसूत्रों की प्रस्तावना ) ।
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(१०) “ पार्श्वनाथजी जैनधर्मके आदि प्रचारक नहीं थे. पंरतु इसका प्रथम प्रचार ऋषभदेवजीने किया था, इसकी पुष्टि के प्रमाणोंका प्रभाव नहीं है । बौद्धलोग महावीरजीको निमन्थोंका ( जैनियों का ) नायक मात्र कहते है स्थापक नहीं कहते हैं." ।
( श्रीयुत वरदाकांत मुखोपाध्याय एम्. ए. के बंगला लेखका अनुवादित अंश. ) ।
(११) भारतेंदु बाबु हरिश्चंद्रने इतिहास समुच्चयांतर्गत काश्मीरकी राजवंशावली में लिखा है कि "काश्मीर के राजवंश में ४७वां अशोक राजा हुआ, इसने ६२ वर्ष तक राज्य किया, श्रीनगर इसीने बसाया और जैनमतका प्रचार किया, यह राजा शचीनरका भतीजा था मुसलमानोंने इसको शुकराज वा शकुनिका बेटा लिखा है, इसके वक्त में श्रीनगर में छ लाख मनुष्य थे इसका सत्तासमय १३९४ ईसवी सन् पूर्वका " ( देखो इतिहाससमुच्चय पू. १८ ) ।
ऊपरकी हकीकत से यह बात सिद्ध होती है कि आज से ३३१९ वर्ष पहले काश्मीर तक जैनधर्म प्रचार पा चुका था और बड़े बड़े राजालोग इस धर्म के माननेवाले थे, इसी इतिहास समुच्चय में रामायण का समय वर्णन करते (पृष्ठ ६) बाबू हरिश्चंद्र लिखते हैं "अयोधया के वर्णन में उसकी गलियों में जैन फकीरों का फिरना लिखा है, इससे प्रगट है कि रामायण के बननेके पहले जैनियों का मत था ।"
(१२) डक्टर फुहररने एपीप्राफिका इंडिका वॉल्युम २ पृष्ठ २०६ २०७ में लिखते हैं कि- “जैनियों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ ऐतिहासिक पुरुष माने गये हैं, भगवद्गीता के परिशिष्ट में श्रीयुत बरवे स्वीकार करते हैं कि नेमिनाथ श्रीकृष्ण के भाई (Cousin ) थे, जब कि जैनियोंके बाईसवें तीर्थंकर कृष्ण के समकालीन थे तो शेष इक्कीस तीर्थंकर श्रीकृष्ण से कितने वर्ष पहिले होने चाहिये, यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं।" (१३) "जैनधर्म एक ऐसा प्राचीन धर्म है कि जिसकी उत्पत्ति तथा इतिहास का पता लगाना एक बहुत ही दुर्लभ बात है ।" (मि० कन्नुलालजी )
(१४) " निस्संदेह जैनधर्म हो पृथ्वी पर एक सच्चा धर्म है, और यही मनुष्यमात्र का आदि धर्म है । और श्रदेश्वर को जैनियोंमें बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध पुरुष जैनियों के २४ तीर्थकरों में सबसे पहिले हुए हैं ऐसा कहा है ।" (मि० आवे जे० ए० डवाई मिशनरी ) (१५) " जिनकी सभ्यता श्राधुनिक है वे जो चाहे सो कहे परंतु मुझे तो इसमें किसी प्रकार का उपा नहीं है कि जैनदर्शन वेदान्तादि दर्शनों से भी पूर्वका है। तब ही तो भगवान् वेदव्यास महर्षि ब्रह्मसूत्रोंमें कहते हैं नैकस्मिन्संभवात् । सज्जनो ! जब वेदव्यास के ब्रह्मसूत्र - प्रणयन के समय पर जैन मत था तब तो उसके खण्डनार्थ उद्योग किया गया । यदि वह पूर्व में नहीं होता तो वह खंडन सज्जनो ! अनेकान्त
कैसा और किसका १, बात यह है कि वेदो में
समय श्रल्प है और कहना बहुत है इससे
थोड़ा कहा जाता है नहीं तो
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