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आचार्य सिद्धसरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ४५२
आचार्य सिद्धसेनसूरि उज्जैन नगर में विराजते थे । एक समय थडिले जाकर वापिस आरहे थे। राजा विक्रमादित्य हस्ती पर आरुढ़ होकर आचार्य के पास से निकल रहा था। उसने सर्वज्ञपुत्र की परीक्षा के लिये हस्ती पर बैठे हुये मन में ही सूरिजी की वंदन किया उस चेष्टा को देख कर सूरिजी ने उच्चस्वर से कहा 'धर्मलाभ' राजा ने कहा कि बिना वन्दन किये हो आप धर्मलाभ किसको दे रहे हैं ? सूरिजी ने कहा कि हे नरेश ! आपने मुझे मन से वंदन किया जिसके बदले में मैंने धर्मलाभ दिया है । राजा ने हस्ती से उतर कर सूरिजी को वन्दन कर कहा कि मेरे दिल में शंका थी कि लोग आपको सर्वज्ञपुत्र कहते हैं यह केवल शब्द मात्र की प्रशंसा है पर आज मैंने प्रत्यक्ष में देख लिया है कि आप वास्तव में सर्वज्ञ पुत्र हैं इस गुण से प्रसन्न होकर मैं करोड़ सुवर्ण मुद्रा आपको भेंट करता हूँ आप स्वीकार करावें । सूरिजी ने कहा कि हे राजन् ! हम निस्पृही निर्ग्रन्थों को इन सुवर्ण मुद्रकाओं से क्या प्रयोजन है हम तो केवल भिक्षा वृत्ति पर गुजारा करते हुये जनता को धर्मोपदेश करते हैं । राजा ने कहा कि मैंने मन से जिस धन को अर्पण कर दिया है उसको रख नही सकता हूँ । सूरिजी ने कहा कि इसके लिये अनेक रास्ते हैं । दुखी मनुष्यों को सुखी बना सकते हो, मन्दिरादि धर्मस्थानों के जीर्णोद्धारादि कार्यों में लगा कर पुन्योपार्जन कर सकते हों। इत्यादि राजा ने जनमुनियों की निस्पृहता की प्रशंसा की और अर्पण किया हुआ द्रव्य सूरिजी की आज्ञानुसार अच्छे कामों में लगा दिया।
___ आचार्य सिद्धसेनसूरि एक समय भ्रमण करते हुए चित्रकुटा नगर में पधारे वहां एक स्तम्भ श्रापको दृष्टिगत हुआ। वह स्तम्भ न पत्थर न मिट्टी न काष्ट का था पर किसी औषधिों के लेप से बना हुआ था। सूरिजी ने प्रतिकूल औषधियों से स्तम्भ का एक विभाग खोला तो उसमें कई हजारों पुस्तकें भरी हुई थी जिसमें से एक पुस्तक लेकर उसका एक श्लोक पढ़ा तो उसमें सुवर्ण सिद्धि विद्या थी फिर दूसरे श्लोक को पढ़ा तो उसमें सरसब के दानों से सुभट बनाने की विद्या थी उन दोनों श्लोक को याद कर आगे तीसरे रलोक को पढ़ना चाहते थे कि पुस्तक स्तम्भ में चली गई और स्तम्भ लेपमय था वैसा ही बन गया । केवल दो विद्या आचार्य श्री के हाथ लग गई उसको स्मृति पूर्वक याद रखली।
आचार्य श्री विहार करते हुए पूर्व देश के कुंरि नगर पधारे वहां देवपाल नामक राजा था । सूरिजी 8 श्री सिद्धसेनसूरिश्चान्यदा बाह्य भुवि व्रजन् । दृष्टः श्रीविक्रमार्केण राज्ञा राजाध्वगेन सः ॥६॥
अलक्ष्यं भप्रणामं स भपस्तस्मै च चक्रिवान । तं धर्मलाभयामास गुरुरुच्चतरस्वरः ॥६२॥ तस्य दक्षतया तुष्टाः प्रीतिदाने ददौनृपः । कोटि हाटकटंकानां लेखकं पत्रकेऽलिखत् ॥६३॥ धर्मलाभ इति प्रोक्त दूरादुद्ध तपाणये । सूरये सिद्धसेनाय ददौ कोटिं नराधिपः ॥६॥ + अन्यदा चित्रकूटाद्रौ विजहार मुनीश्वरः । गिरे नितंब एकत्र स्तंभमेकं ददर्शच ॥६७॥
नैव काष्टमयो ग्रावमयो न नचमृण्मयः । विमृशन्नौषध क्षोदमयं निरचनोच्च तम् ॥६८॥ तद्रसस्पर्शगंधादि निरीक्षाभिर्मतिबलात् । औषधानि परिज्ञाय तत्प्रत्यर्थीन्यमीमिलन् ॥६९॥ पुनः पुननिघृष्याथ स स्तंभे छिद्र मातनोत् । पुस्तकानां सहस्त्राणि तन्मध्ये च समैक्षत ॥७॥ एकं पुस्तक मादाय पत्रमेकं ततः प्रभुः । विवृत्य वाचयामास तदीयामोलिमेककाम् ॥७॥ सुवर्ण सिद्धियोगं स तत्र प्रेक्षत विस्मितः सर्सपैः सुभटानां च निष्पत्ति श्लोक एकके ॥७२॥ सावधानः पुरो यावद्वाचयत्येण हर्षभूः। तत्पत्रं पुस्तकं चाथ जह्व श्रीशासनामरी ॥७३॥
तारकपूर्वगतग्रन्थवाचने नास्ति योग्यता । सत्वहानिर्यतः कालदौस्थ्यादेतादृशामपि ॥७॥ प्र० च० आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ]
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