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________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास वाउ भरी दहीने घोल, जीमणो कर लेइ वेसि बोल । इणि परेइ ं मुँडो मैलावर करई, स्वर्ग तणी वातज बिसरहूं || ६ || serica विक्री जेवणु मर्म्म न बोली जे कहे तणु कुडी साखी न दीजे आल, ए तुम्ह धर्म कहुँ गोवाल ||७|| अरडस विच्छु नवि मारई मारतओ पण उघारइ कुडकपट थी मन बारी इणि परई आप कारज सारई ||८|| वचन नव कीजइ कही तणु यह बात साची अणु कीजई जीव दयानु जतन, सावय कुल चिंतमणि रतन ॥ ६ ॥ वृद्धवादी के इस गीत (उपदेश) को सुन कर गोपाल बराबर समझ गये और उन को बड़ी भारी खुशी हुई तब वे गोपाल ताली देकर कहने लगे । गोवालिया उठ्या गहगही, हरखित ताली देता सही भो यही ज गरडो डोकरउं, नही भणियों येहीज छोकरउ ॥१॥ भट्ट जे बोल्यो भूत पल्लाप, फोड्या कान विधोयो आप । गरड़ो हरयो तु हल्ल, पाये लागी करइ ए गुरमल्ल ॥२॥ बन्धकार लिखता है कि गोपालों के सामने सिद्धसेन ने कहा कि संसार में कोई सर्वज्ञ नहीं है । उत्तर में आचार्य वृद्धवादी ने गोपालों से पूछा कि तुमने सर्वज्ञ देखा है ? गोपालों ने उत्तर दिया कि नगर के मंदिर में सर्वज्ञ वीतराग बैठा है । जिसको हम लोगों ने प्रत्यक्ष देखा है और सब लोग उसको सर्वज्ञ वीतराग ईश्वर कहते हैं । यह बात सत्य है फिर यह पण्डित झूठ क्यों बोलता है इत्यादि गोपालों ने वृद्धवादी को सच्चा और सिद्धसेन को झूठा कह कर फैसला दे दिया । बस, फिर तो था ही क्या ! सत्यवादी सिद्धसेन ने गुरु महाराज के चरणों में शिर झुका कर कहा कि हे पूज्यवर ! आप कृपा करके मुझे अपना शिष्य बनाइये कारण मैंने पहिले से ही ऐसी प्रतिज्ञा की थी कि मैं जिससे हार जाऊं उसका शिष्य बन जाऊ ं । सूरीजी ने कहा सिद्धसेन तू वास्तव में पंडित है पर कमी है तो समयज्ञपने की है । यदि तू जैन दीक्षा लेनी चाहता है तो बहुत अच्छा है पर यदि तेरी इच्छा हो तो अभी किसी राज सभा में चल कर विद्वान पण्डितों के समक्ष शास्त्रार्थ कर फिर वहां जय पराजय का निर्णय हो जायगा । सिद्धसेन ने कहा नहीं प्रभो ! निर्णय तो यहां हो गया है और मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि आपके सामने मैं कुछ भी नहीं हूँ । अतः आप मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण कर के अपना शिष्य बनालें । सूरिजी ने विधि विधान से सिद्ध सेन को दीक्षा देकर उसका नाम कुमुदचन्द्र रख दिया। मुनि कुमुदचन्द्र ने जैन दीक्षा लेने के बाद वर्त्तमान जैन साहित्य का अध्ययन कर लिया । श्राचार्य वृद्धवादी ने सर्वगुण सम्पन्न जान कुमुदचन्द्र को आचार्य पद से विभूषित कर उनका प्रसिद्ध नाम सिद्धसैनसूरि रख दिया और अन्य साधुओं को साथ देकर अलग विहार करवा दिया । आचार्य सिद्धसैनसूरि की ज्ञानप्रभा यहां तक फैल गई कि वे सर्वज्ञ पुत्र के नाम से प्रसिद्ध हो गये । ४४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ श्री वीर परम्परा www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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