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आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ]
[ ओसवाल संवत् ४५२
पण्ठित ही नहीं है । कई कई कथाओं में तो यहाँ तक भी लिखा मिलता है कि सिद्धसेन अपने पेट पर एक पाटा बांधा हुआ रखता था। पूछने पर कहता था कि मुझे डर है कि कहीं विद्या से मेरा पेट फट न जाय । पंडित जी एक हाथ में कुदाल और एक हाथ में निसरणी भी रखते थे पूछने पर कहते थे कि यदि कोई वादी आकाश में चला जाय तो इस निसरणी से उसकी टांग पकड़ ले पाऊँ और पाताल में चला जाय तो इस कुदाल से पृथ्वी खोद कर उसकी चोटी पकड़ कर खींच लाऊँ । यह गर्व की चर्म सीमा थी इतना होने पर भी एक प्रतिज्ञा उसने ऐसी भी कर ली थी कि जिसके साथ मैं शास्त्रार्थ करूँ और मध्यस्थ लोग कह दें कि सिद्धसेन हार गया तो मैं जीतने वाले का शिष्य बन जाऊँगा इत्यादि -
___एक समय जंगल में इधर से तो आचार्य वृद्धवादी आ रहे थे उधर सिद्धसेन जा रहा था दोनों की आपस में भेंट हुई । सिद्धसेन ने कहा जैन सेबड़ा ! मेरे साथ शास्त्रार्थ करेगा ? वृद्धवादीसूरि ने कहा हाँ। सिद्धसेन ने कहा तब कीजिये शास्त्रार्थ वृद्धवादीसूरि ने कहा यहाँ जंगल में कैसे शास्त्रार्थ किया जाय । कारण यहाँ हार जीत का निर्णय करने वाला मध्यस्थ नहीं है अतः किसी राज सभा में चलो कि वहाँ राजा एवं पगिडतों के समक्ष शास्त्रार्थ किया जाय जिससे जय पराजय का फैसला मिले । सिद्धसेन ने कहा मेरा तो पेट फटा जाता है आप यहाँ ही शास्त्रार्थ करें। यह जंगल के गोपाल हैं इनको मध्यस्थ रख लीजिये ये अपन दोनों के संवाद सुन कर हार जीत का निर्णय कर देंगे। सिद्धसेन का आग्रह देख आचार्य वृद्धवादी ने स्वीकार कर लिया और गोपालों को बुला कर मध्यस्थ मुकर्रर कर दिये ।
___ पहिले सिद्धसेन ने अपनी पण्डिताई का परिचय करवाता हुआ संस्कृत में इस प्रकार का कथन किया किनिसको श्रवण कर देवता भी प्रसन्न हो जाय पर मध्यस्थ तो थे गोपाल । वे विचारे संस्कृत भाषा में क्या समझे उनको तो उल्टा खराब ही लगा । गोपालों ने कहा कि तुम ठहर जाओ, कुछ पढ़े तो नहीं और ध्यर्थ ही बकवाद करते हो। अब इन बूढे बाबा को बोलने दो । अतः समय के जानकार प्राचार्य वृद्धवादी बोलने लगे। उनके ओघा तो कमर पर बँधा हुआ ही था और शरीर को घुमाते हुए गोपालों की भाषा में गोपालों के गीत की राग में उच्चेस्वर से गाने लगे किः
"नवि मारीई नवि चोरीइं परदारा गमन न कीजीई थोड़ास्युथोडु दीजई, तउटगि मगि सग्गि जाइई ॥१॥ गाय भैसि जिम निलुचरइ तिमतिम दूध दुणो भरई तिमतिम गोवला मनि ठरई, छाछि देयतां तेड करई ॥२॥ गुलस्यु चावइ तील तंडुली, बड़े बजाइ बाँसली पहिरण ओढणि हुई धावली गोवाला मन पुगी रली ॥३॥ मोटा जोटा मिल्या पिंढार, माहो माहि करिये विचार महीपी दूझणी सरजी भली, दीइ दाबोटा पुगी रली ॥४॥ बन माहि गोवला राज, इन्द तणि घरि परवा न आज भमर मिस दूझीवली सोल, सुखि समाधि हुई रंगरोल ॥५॥
आचार्य वृद्धवादी सूरि ]
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