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________________ वि० सं० ५२ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास Viral अन्दर एक चारित्र ही ऐसा निर्भय है कि जिसकी आराधना करने से निर्भय स्थान को प्राप्त कर सकता है "भोगे रोगभयं सुखे क्षयभयं वित्तऽग्निभभृद्भयं, दास्ये स्वामिभयं गुणे खलभयं वंशे कुयोषिद्भयम । स्नेहे वैरभयं नयेऽनयभयं काये कृतान्ताद्भयं, सर्व नाम भयंभवे यदि परं वैराग्यमेवाभयम् ॥" इत्यादि । आपके व्याख्यान का प्रभाव यों तो जनता पर पड़ा ही था पर वृद्ध ब्राह्मण मुकन्द पर तो इतना असर हुआ कि उसने सूरिजी के चरण कमलों में भगवती जैन दीक्षा लेली । आपको ज्ञान पढ़ने की खूब रुचि थी पर बुद्धि इतनी जड़ थी कि परिश्रम करने पर भी सफलता नहीं मिलती थी। खूब जोर-जोर से घोखाघाख करता था दिन को तो आस पास के गृहस्थ लोगों के कान कम्प उठते थे और रात्रि में पास में रहने वाले साधुओं की निद्रा भंग हो जाती थी अतः वे कहने लगे कि हे मुनि ! रात्रि समय इस प्रकार शब्दोच्चारण से हिंसक जीव जाग कर आरम्भ कर बैठेगा पर मुनि मुकन्द को तो पढ़ना था ज्ञान, उसने अपना अभ्यास चालू रक्खा । इस पर एक समय मुनियों ने गुस्से में होकर कहा रे मुनि ! तू इस वृद्धावस्था में पढ़ कर क्या मूसल फूलावेगा ? मुकन्द ने कहा कि आत्मा में अनन्त शक्ति है तो मूसल फूलाना कौन सी बड़ी बात है। समय आने पर मूसल भी नवपल्लवित हो सकता है । प्राचार्य श्री के साथ मुनि मुकन्द विहार करते हुये भरोंच नगर में आये वहाँ पर “ नालिकेरवसांत" नाम के जिन चैत्य में जाकर सरस्वती देवी की आराधना करनी प्रारम्भ की। चारों आहार का त्याग कर मूर्ति के सन्मुख एकाग्र चित्त से देवी भारती की आराधना में २१ दिन व्यतीत हो गये । तब जाकर देवी प्रसन्न हो कर बोली कि मुनि मैं तुमको बरदाई हो गई हूँ अब तेरा मनोरथ सफल होगा । मुकन्द ने कहा तथास्तु । देबी अजेयज्ञान का वर देकर अदृश्य हो गई । सुबह मुनि ने आकर गुरुदेव को वंदन नमस्कार किया और आज्ञा लेकर पारणा के लिये नगर में गया । जिस घर में मुनि भिक्षा के लिये गये उस घर में एक मूसल पड़ा हुआ देखा जिससे मुकन्द को युवक मुनि का वचन स्मरण हो आया । मुनि ने मूसल को अचित जल का सिंचन कर सरस्वती से प्रार्थना की कि यह मूसल फूलों से नव प्लावित हो जाय । बस, फिर तो देरी ही क्या थी उसी समय जैसे ताराओं से आकाश शोभित है वैसे ही पुष्प पत्तों से मूसल शोभने लगा। इस चमत्कार को देख सब लोगों को आश्चर्य हुआ। कहने वाले युवक मुनि का जवानी एवं विद्या का गर्व गल गया और उसने अपने अपराध की क्षमा मांग कर वृद्ध मुनि की प्रशंसा की। अब तो मुनि मुकन्द सरस्वती देवी की कृपा से बड़ी बड़ी राज सभा में पण्डितों के साथ वाद विवाद कर सर्वत्र विजय प्राप्त करने लग गये । यही कारण है कि आप बृद्ध वादी के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध हो गये । आचार्य रकन्दिलसूरि मुनि वृद्धवादी को सर्वगुण सम्पन्न जान कर अपने पट्ट पर आचार्य बना कर आप समाधि पूर्वक स्वर्ग गये। श्राचार्य वृद्धवादीसूरिंगच्छनायक होकर धरा पर विहार करते हुये एक समय उज्जैन नगरी की ओर आ रहे थे उस समय रज्जैन में राजा विक्रमादित्य राज्य कर रहा था उसी नगरी में देवीर्षि नामक ब्राह्मण राजा का मंत्री था जिसके स्त्री का नाम देवश्री था और इनका पुत्र सिद्ध सेन + जो चार वेद अठारह पुराणादि वाह्मण धर्म के सर्व शास्त्रों का पारगामी था। विद्या का उसको इतना गर्व था कि मेरा जैसा दुनिया भर में कोई +श्रीकात्यायनगोत्रीयो देवर्षिब्राह्मणांगजः । देवश्रीकुक्षिभूविद्वान् सिद्धसेन इति श्रुतः ॥३९॥ प्र. च. ४४० [ श्री वीर परम्परा ary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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