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________________ आचार्य सिद्धसूरि का जीवन ] [ ओसवाल संवत् ४५२ एक समय पादलिप्तसूरि अपने आयुष्य को नजदीक जानकर अपने गृहस्थ शिष्य नागार्जुन के साथ विमलाचल पधारे वहाँ युगादीश्वर को बन्दन कर आलोचना पूर्वक अनशनत्रत किया । ३२ दिन तक समाधि के अन्दर रह कर अन्त में नाशवान शरीर का त्याग कर सूरिजी महाराज स्वर्ग पधार गये । इस पादलिप्तसूरि के प्रबन्ध में जितने आचायों का वर्णन आता है उसके अन्दर कई प्रकार के चमत्कार आये हैं जबकि जैनशास्त्रों में साधुओं के लिए इस प्रकार के चमत्कार दिखाने की मनाही है फिर उन विद्वानाचार्यों ने ऐसा क्यों किया होगा ? जैनागमों में द्रव्य क्षेत्र काल भाव को लक्ष्य में रखकर उत्सर्गोपवाद दो प्रकार का मार्ग बतलाया है । जब इन आचार्यों के समय की परिस्थिति को देखा जाय तो उन चमत्कारों की जरूरत थी । कारण एक तरफ बोद्धाचार्य्यं दूसरी और वेदान्ताचार्य इस प्रकार के चमत्कार बतला कर भद्रिक जनता को सत्पथ से पतित बनाकर अपने जाल में फंसाने का प्रयत्न कर रहे थे उस हालत में जैनाचाय्यों को उनके सामने खड़े कदम रहकर जैन जनता एवं जैनधर्म की रक्षा करना जरूरी बात थी । उन्होंने जो कुछ किया था वह जैनधर्म की रक्षा के लिए ही किया था न कि निजी स्वार्थ के लिए । अतः उन्होंने जो किया वह शासन के हित के लिये ही किया था और ऐसा करने से ही जैनधर्म जीवित रह सका है। ऐसी कुतर्क करने वाले महाशयों को पहिले उस समय का इतिहास उस समय की परिस्थिति का ज्ञान करना चाहिये ताकि अपनी तर्क का स्वयं समाधान हो सके । आचार्य वृद्धवादी और सिद्धसेन दिवाकर- - आप दोनों श्राचार्य महाप्रतिभाशाली एवं जिनशासन की प्रभावना करने वाले हुये हैं जिसमें पहिले वृद्धवादी का सम्बन्ध लिखा जा रहा है । गौड़ देश के कोशला ग्राम में एक मुकन्द नामका वृद्ध ब्राह्मण बसता था । उस समय विद्याधर शाखा के आचार्य पादलिप्त सूरि की परम्परा सन्तान में स्कन्दिलाचार्य्यं विहार करते हुए कोशल ग्राम में पधारे | आपका व्याख्यान हमेशा त्याग वैराग्य एवं आत्म कल्याण पर हुआ करता था एक दिन व्याख्यान में सूरिजी ने फरमाया कि “पच्छवि ते पयाया, खिप्पं गच्छति अमर भवणाई । जेसिं पियो तवो संजमो य, खंतीय बंभचेरं च ॥ " 1 अर्थात् मनुष्य अपनी पिछली अवस्था में भी जिनेन्द्र दीक्षा ग्रहण कर ले तो उसके लिए विमानीक देवों के सुख तो सहज में ही मिल सकते हैं क्योंकि वृद्धावस्था में एक तो ब्रह्मचर्य व्रत सुख से पल सकता है दूसरे कषाय की मंदता होने से क्षमा गुण बढ़ जाता है । इनके अलावा सूरिजी ने कहा कि संसार के तत्रास्ति कोशलाग्रामसंवासा विप्रपुङ्गवः । मुकुन्दाभिधया साक्षान्मुकुन्द इव सत्त्वतः ॥ ७॥ अपरेद्य ुविहारेण लाटमंडलमंडनम् । प्रापुः श्रीभृगुकच्छं ते रेवासेवापवित्रितम् ॥ १३॥ श्रुतपाटमहाघोषैरंबरं प्रतिशब्दयन् । मुकुन्दर्पिः समुद्रोम्मिध्वानसापत्न्यदुःखदः ॥१४॥ भृशं स्वाध्यायमभ्यस्थन्नयं निद्राप्रमादिनः । विनिद्रयति वृद्धत्वादाग्रही सन्नहर्निशम् ॥ १५ ॥ तारुण्योचितया सूक्तया करणासूयया ततः । अनगारेः खरां वाचमाददे नादरार्दितः ॥ १९ ॥ अजानन्वसतं यदुग्रपाठादरार्दितः । फुल्लयिष्यसि तन्मल्लीवल्लोवन मुशलं कथम् ॥२०॥ तत आराधयिष्यामि भारतीदेवतामहम् । अथोग्रतपसा सत्यं यथा सूयावचो भवेत् ॥२२॥ समुत्तिष्ठ प्रसन्नास्मि पूर्यन्तां ते मनोरथाः । स्खलना न तवेच्छास्तु तद्विधेहि निजेहितम् ॥२७॥ प्र० च० आचार्य वृद्धवादीसूरि ] Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३९ www.jainelibrary.org
SR No.003211
Book TitleBhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarvijay
PublisherRatnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
Publication Year1943
Total Pages980
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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